75 दिनों का बस्तर का दशहरा
शुक्रवार, 1 मई 2009
बस्तर के दशहरे का ताल्लुक महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा से है, रावण के दहन से नहीं। यह आयोजन पूरे 75 दिनों तक चलता है। 15वीं शताब्दी में इसकी शुरुआत हुई थी। बस्तरिया दशहरे की ख्याति इसकी शुरुआत के पिछले 500 वर्षों के गुजर जाने के बाद भी कम नहीं हुई है बल्कि आदिवासियों के इस आयोजन को देखने प्रतिवर्ष देशी-विदेशी सैलानियों की संख्या बढ़ती जा रही है। खासियत यह है कि आमतौर पर समस्त भारत में विजयादशमी को दशहरा मनाया जाता है, लेकिन बस्तर में इसकी शुरुआत सावन की अमावस्या से शुरू हो जाती है। एक और प्रमुख फर्क यह है कि बस्तर के दशहरे का ताल्लुक महिषासुर मर्दिनी देवी दुर्गा से है, रावण के दहन से नहीं।
यह आयोजन पूरे 75 दिनों तक चलता है। साक्ष्यों के मुताबिक बस्तर के राजा पुरुषोत्तम देव ने 15वीं शताब्दी में इसकी शुरुआत की थी। बादमें काकातीय राजवंश की छत्रछाया में यह आयोजन निरंतर फलता-फूलता गया और पूरे दंडकारण्य वन क्षेत्र में जनश्रुति और पौराणिक प्रमाणों के मुताबिक राम ने 14 वर्ष गुजारे थे। छत्तीसगढ़ की प्राचीन पहचान राम की माता कौशल्या का मायका होने की भी है।
बस्तर के दशहरे में आदिवासी समाज बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है। सैलानी यहां आकर उनके रीति-रिवाजों को देखकर चकित रह जाते हैं। बस्तर में मौजूद आदिवासी समुदाय के परगनिया मांझी लोग तीन महीने पहले से दशहरे की सामग्री जुटाना शुरू कर देते हैं। इसका प्रथम चरण 'काछिन गादी' से शुरू होता है- मतलब काछिन देवी को गद्दी देना। ध्यान दें कि पूरे बस्तर में देवियों की अनन्य भक्ति होती है, दंतेश्वरी देवी यहां की अग्रणी देवी हैं। उनकी बहन मावली की भी पूजा-अर्चना होती है। आश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिन गादी शुरू हो जाती है। इसमें भव्य जुलूस निकलता है। दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी इसमें प्रमुख रस्म अदा करते हैं। काछिन देवी एक कन्या पर सवार होती है। उसे कांटेदार झूले पर सुलाया जाता है। देवी कांटों की सेज पर आती है और उस पर विजय का संदेश देती है। इसके बाद जोगी बिठाई के कार्यक्रम शुरू होते हैं, जिसमें कलश स्थापना होता है। जोगी बनकर बैठने वाले को नौ दिन फलाहार पर रहना होता है। पहले इस मौक पर बलि दी जाती थी, अब केवल मांगुर मछली काटी जाती है। जोगी बिठाई के बाद रथ चलना शुरू हो जाता है। इस रथ पर दंतेश्वरी का छत्र चढ़ाया जाता है। यह रथ प्रतिदिन परिक्रमा करता है। पहले 12 पहियों वाला रथ होता था। अब आठ और चार पहियों वाले दो रथ निकलते हैं। लोग श्रध्दावश रथ को रस्सियों से खींचते हैं। रथ के आगे-पीछे आदिवासी नृत्य की धूम होती है और समूचे बस्तर की संस्कृति अपने उल्लास में प्रकट होती है। अंत में आश्विन शुक्ल तेरस को गंगामुड़ा स्थित मावली शिविर के समीप पजा मंडप में मावली माई की बिदाई गंगामुड़ा जात्रा के रूप में सम्पन्न होती है। दशहरे के मौके पर मेले-मड़ई और समूह नृत्य के साथ-साथ हाट-बाजार की मौजूदगी सैलानियों को स्मृतियां संजोने और खरीदारी के लिए भी विवश कर देती है।
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें