भारत को कोसना, इंडिया पर इतराना !

शुक्रवार, 1 मई 2009


क्या आजादी के 62 वर्षों में भारत ने कोई तरक्की नहीं की है? मुंबई पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म पर अमिताभ बच्चन के ब्लॉग में तीखी प्रतिक्रिया आई। इसमें कहा गया है 'स्लमडॉग मिलिनेयर' भारत को तीसरी दुनिया के गरीब देश के रूप में ही चित्रित करती है।

'स्लमडॉग मिलिनेयर' जैसी भारत की गरीबी दिखाऊ फिल्में अन्तरराष्ट्रीय मंडी में हमेशा से पुरस्कार के लिए नामित और चयनित होती रहती हैं। इन दिनों इस फिल्म को लेकर एक नई बहस छिड़ी हुई है। विषय है कि भारत के पास दिखाने के लिए सिर्फ गरीबी ही है या कुछ और भी है, जिन पर 'सो कॉल्ड मेकर्स' की नजर ही नहीं पड़ती। क्या आजादी के 62 वर्षों में भारत ने कोई तरक्की नहीं की है? मुंबई पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म पर अमिताभ बच्चन के ब्लॉग में तीखी प्रतिक्रिया आई। इसमें कहा गया 'स्लमडॉग मिलिनेयर' भारत को तीसरी दुनिया के गरीब देश के रूप में ही चित्रित करती है। फिल्म में गंदी-बस्ती के एक लड़के की कहानी है, जो कौन बनेगा करोड़पति सरीखे एक टीवी क्विज कार्यक्रम में भाग लेकर जीत जाता है। लेकिन, उसकी जीत संदेह से घिर जाती है, उसकी जीत पर एक अभिशप्त प्रश्नचिन्ह है। बहस यह है कि इसी फिल्म को गोल्डन ग्लोब अवार्ड सहित ऑस्कर के लिए क्यों नामित किया गया?

ऑस्कर के लिए आमिर खान जैसे फिल्मकार अभिनेता अपनी तमाम मेहनत से बनाई गई फिल्में लिए वर्षों से कतार में हैं। लेकिन, अभी तक उनको सफलता नहीं मिली। स्लमडॉग ने ऐसा क्या दिखा दिया कि विदेशी इस पर झूम रहे हैं। इस सवाल को बूझने से पहले जान लें कि यह ब्रिटेन के फिल्मकार-निर्देशक  डैनी बॉयल ने निर्देशित की है, जिसका स्क्रीन प्ले जनाब साइमन बूफाम ने लिखा है। यह फिल्म दक्षिण अफ्रीका के भारतीय उपउच्चायुक्त विकास स्वरूप की पुस्तक 'क्यू एंड ए' पर बनी है। खुद विकास स्वरूप इस फिल्म के चित्रण से गद-गद हैं। उनका यह भी कहना है कि यह पुस्तक उन्होंने सिर्फ दो महीनों में ही लिख डाली। इस पुस्तक पर बीबीसी ने नाटक भी बनाया जो सोनी रेडियो ड्रामा में अवार्ड में टॉप पर रहा।

इन तथ्यों की रोशनी में यह सवाल भी उभरता है कि क्या किसी भारतीय फिल्मकार ने यह फिल्म बनाई होती तो उसे ऑस्कर के लायक माना जाता? यह दुर्भाग्य है कि विदेश में भारत का राजनयिक प्रतिनिधित्व करने वाले लेखकीय स्वतंत्रता के नाम पर भारत का कुरूप चेहरा ही क्यों दिखाते हैं? उन्हें मुंबई में धारावी ही नजर आती है और बस्तर में आदिवासियों की नग्न-संस्कृति पर ही वे छाती पीटते रहते हैं। वे लाखों रोना रो लें, आदिवासी नंगा का नंगा ही रहेगा, क्योंकि सूट-सफारी उसकी संस्कृति और पर्यावरण से मेल नहीं खाते।

लेखक का खुद कहना है कि यह पुस्तक उन्होंने ब्रिटेन में लिखी तब तक एक कर्नल महोदय किसी क्विज प्रोग्राम में धोखाधड़ी के आरोप से घिर गए थे। तब उनको सूझा कि क्यों न एक पुस्तक इस पर लिखी जाए।

पहला सवाल तो स्लमडॉग पर ही हो रहा है। स्लम अर्थात मलिन बस्तियों में क्या 'डॉग' रहते हैं? क्या सोच है, एक वर्ग स्लमवासियों को स्लमडॉग कहता आया है। वहाँ इंसान नहीं रहते? फिल्म के टाइटल पर कहा जा रहा है कि इसे स्लमबॉय कर देना चाहिए था। उपनिवेशवादियों, बुध्दिजीवियों की इस बात के लिए  भी भारत भर में भर्त्सना हो रही है कि जब वे विदेशी महफिलों में जाते हैं तो अपनी दीनता के बोध के साथ यहां की भूख, गरीबी और पिछड़ापन को ही बक्से में भरकर ले जाते हैं। वे भारत को कोसते हैं और इंडिया पर इतराते हैं। पिछली सदी में भारत को भले ही मदारियों और साँप-सपेरों की दुनिया समझा जाता था, लेकिन, तब और अब की स्थिति में बहुत फर्क आ गया है। ऐसा लगता है कि दुनिया का एक वर्ग इस बात को स्वीकारना ही नहीं चाहता कि भारत एक बड़ी ताकत बनकर उभरे।

इन ताकतों को जब इंडिया में साबुन, शैम्पू और सौंदर्य प्रसाधन बेचने होते हैं तो अचानक उनको यहाँ पर विश्व सुंदरियां दिख जाती हैं जिनको पाँच करोड़ रूपयों का ताज पहनाकर सौंदर्य सामग्रियों का विशाल खरीदार वर्ग तैयार कर लिया जाता है। व्यावसायिकता और बाजारवाद का यह सौंदर्य खेल कार्पोरेट जगत में सूरमा चलाते हैं। इन उद्योगवीरों के पास बेपनाह दौलत होती है जिसके चलते ये सारी दुनिया पर वर्चस्व बनाए रखना अपना एक मौलिक आधार मानते हैं। यही सिलसिला यदि चलता रहा तो यह दुनिया सौंदर्य पारखियों की नहीं, अपितु सौंदर्य को बेचने वालों की बनकर रह जाएगी। कुछ हमारे यहाँ के विदेशजीवी फिल्मकार भी भारत आकर बनारस में विधवाओं पर हो रही ज्यादती को चित्रित करने में ही दिलचस्पी रखते हैं। वे आजादी के नाम पर किसी की आराधना को भी नग्न चित्रित कर सकते हैं। विरोध करने पर अभिव्यक्ति की आजादी की गुहार में चीखने लगते हैं। सवाल उस अमरीकी-ब्रितानी मानसिकता का भी है, जो सर्वश्रेष्ठ होने के बोध में दूसरे-तीसरे देशों को बराबर मानने को तैयार नहीं है। भारत पर आतंकी हमले और पाक पर कार्रवाई को लेकर दोहरे बर्ताव से भी यह साफ नजर आ रहा है।

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