यादों में बाबूजी (6)

रविवार, 12 जून 2011

बात अगर दूसरों की मदद की हो तो बाबूजी को हमने जान की बाज़ी भी लगाते हुए देखा. घटना यह थी, एक बार गांव से लगे राजमार्ग पर एक ट्रक और ट्रेक्टर में भिडंत हो गी थी. ट्रेक्टर चलाने वाला गाँव का ही आदमी था. उसे हल्की चोटें आईं थीं मगर मामले ने दूसरा ही रंग ले लिया. गलती भी ट्रक वाले की नही थी मगर देखते ही देखते लोगों का हुजूम जमा हो गया.गुसाए हुए लोग ट्रक वाले को ज़िंदा जला देना चाहते थे. बाबूजी को पता चला तो वे तत्काल सड़क पर पहुंचे. महाराज के पहुचने से हुआ कि अपना गाँव अपना इलाका जान कर उन्माद पर उतारू लोग थोड़ा संयमित नजर आए और बाबूजी ने बीच बचाव करते हुए आखिर उस ड्राइवर को भीड़ के चंगुल से बचाया. बाबूजी उसे घर ले आए और जब मामला ठंडा पड़ा तभी भेजा.

एक आदमी जेठ की तपती हुई दोपहर में घर के सामने सड़क पर गिर गया. उसने शराब पी रखी थी. बाबूजी उसे घर ले आए. वह नशे में अंट -शंट बकता रहा और लुढ़क गया . बाबूजी ने कहा कि इसे धूप में भेजना ठीक नही है. जब उसका नशा उतरा तो वह आदमी माफी मांगता हुआ चला गया. बताइये, इस जमाने में लोग उनको क्या कहेंगे जो सड़क पर गिरे हुए शराबी को घर ले आए. इमप्रेकटिकल, नासमझ असामान्य, इत्यादि कोई भी शब्द दिया जा सकता है. मगर बाबूजी जैसे थे, थे.

दशहरे का का दिन. वर्ष 1974. गाँव भर में जोश, उत्साह और उमंग का माहौल है.
मूर्तिशिल्पी नही पहुच सका था तो महाराज और अन्य गाँव वालों ने मिल कर मूर्ति तैयार की और दुर्गा की भव्य प्रतिमा उस पंडाल में विराजी है जिसे सजा दिया गया है.
कल उसका विसर्जन देखने दूर-दूर से लोग आए हैं.
गाँव भर में लाउडस्पीकर बज रहे हैं.
मेले में दुकाने सजी हैं.
नचनिया पार्टी के लड़के नर्तकी बने पूरी अदाएं दिखाते हुए नाच रहे हैं.
सजे हुए मंच पर गाना बज रहा है.. कोई शहरी बाबु दिल लहरी बाबू हाय रे पग बांध गया घुंघरू मैं छम छम नचदी फिरां..
रूपये लुटाए जा रहे हैं.. पूरी मस्ती , पूरा उत्साह..
बाबूजी घर पर हैं क्योंकि महाराज ऐसे गाने बजाने में जाएं का सवाल ही नही उठता. लिहाजा महाराज घर पर ही हैं. कोई बुलाने की हिमाकत भी नही करता.

अचानक मौसम का मिजाज बिगड़ गया.

चक्रवाती तूफ़ान ने पूरे इलाके को एक पल में चपेट में ले लिया.
बदल उमड़-घुमड़ जरुर रहे थे मगर हालात इतने बिगड़ जाएंगे किसी ने नही सोचा था. तम्बू उखड गए. लाईटें बुझ गईं और चीख-पुकार मच गई.लोग इधर- उधर भागने लगे. बाबूजी ने तुरंत नौकर को भेजा और सबको अपने घर में बुला लिया. पूरी भीड़ घर में घुस गई . तिल रखने को भी जगह नही बची.

उस तूफानी रात जम कर पानी बरसा. चारों तरफ पानी ही पानी.. रात आसमान से तबाही बरसी. फसल चौपट . सुबह हुई . आसमान साफ़ हुआ. लोग रवाना हुए. दशहरे का मजा किरकिरा हो गया.
अब बाई (माताजी) के भड़कने की बारी थी क्योंकि जिसे जो मिला वो लेकर चलता बना. घर के बर्तन भी गायब थे. लोगों ने आश्रयदाता को ही चपत लगा दी थी. दूर के गाँव वालों को उस रात आसरा नही मिलता तो भारी जनहानि हो सकती थी. बाबूजी ने पूरा घर खोल दिया था और कभी जिन कमरों में अमूमन हम भी जाने से डरते थे उन कमरों में सारी रात लोग खड़े रहे. इतनी भीड़ थी.मेले से भाग कर घर आने के बाद सोया जरूर मगर रात मेरी नींद खुली थी तो देखा पलंग के सिराहने लोग खड़े हैं.

बर्तन गायब होने की बात बाबूजी ने हंस कर टाल दी और बाद में कहा- कर भला कटा गला. बाबूजी मना कर देते तो किसी की हिम्मत नही थी कि आँगन का द्वार भी लाँघ जाए क्योंकि रिवाज था बाहरी लोग आँगन में खड़े हो कर ही बात करते थे. जिनको आँगन लांघते नही देखा था, उनके लिए बाबूजी ने पूरा घर खोल दिया. उन्होंने वक्त की नज़ाकत को समझा और वास्तविक मदद की.परोपकार के लिए ऐसा आचरण बिरले ही कर पाते हैं.
(क्रमशः)

3 comments:

SANDEEP PANWAR 12 जून 2011 को 11:06 am बजे  

आपके बाबूजी के कार्य को नमन
आज के लोग तो कर भला के बदले, कर बुरा कर रहे है।

ब्लॉ.ललित शर्मा 12 जून 2011 को 8:12 pm बजे  

बुजुर्गों की यादें मार्गदर्शक का काम करती है
एक प्रकाश स्तंभ की तरह्।

आभार

मदन शर्मा 28 जून 2011 को 5:31 pm बजे  

आखें नम हो गईं ,आपके बाबु जी को सादर नमन !

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