सत्यदेव दुबे : जनचेतना के रंग -निर्देशक
रविवार, 25 दिसंबर 2011
भारत के जानेमाने नाटककार, पटकथा लेखक, फिल्म व नाट्य के प्रति समर्पित, प्रयोगशील निर्देशक मशहूर निर्देशक.रंगकर्मी सत्यदेव दुबे का रविवार को मुंबई के एक अस्पताल में लंबी बीमारी के बाद रविवार निधन हो गया| वे 75 वर्ष के थे| हकीकत यह है कि हिन्दी रंगमंच का इतिहास आज पं0 सत्यदेव दुबे के उल्लेख के बगैर लिखा ही नहीं जा सकता।
सत्यदेव दुबे (जन्म 1936) भारत के जानेमाने नाटककार, पटकथा लेखक, फिल्म व नाट्य निर्देशक रहे हैं। उनका जन्म छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में हुआ। शुरुआती दिनों में दूबेजी की क्रिकेट के प्रति दीवानगी थी और वे एक नामी क्रिकेटर बनना चाहते थे और अपने सपनों को पूरा करने के लिए मुंबई चले आए थे लेकिन शौकिया तौर पर एक थियेटर ग्रुप में शामिल हो गए थे| पी डी शिनॉय और निखिलजी का मार्गदर्शन रहा|
गिरीश कर्नाड के पहले नाटक ययाति और हयवदन. बादल सरकार के इंद्रजीत और पगला घोडा . मोहन राकेश के आधे अधूरे और विजय तेंदुलकर के खामोश अदालत जारी है जैसे नाटकों का मंचन कर भारतीय रंगमंच मे योगदान दिया|
सत्यदेव दूबे के पौत्र ने कहा वह पिछले कई महीने से कोमा थे । सत्यदेव दूबे को इस साल सितंबर महीने में जूहू स्थित पृथ्वी थियेटर कैफे में दौरा पड़ा था और तभी से वह कोमा में थे । इसके बाद से वे वह मस्तिष्क-आघात से जूझ रहे थे।
वे चर्चित नाटककार और निर्देशक थे| 'आधे अधूरे' और 'एवम इंद्रजीत' जैसे नाटकों के लिए प्रसिद्ध थे लेकिन उन्हें प्रसिद्ध किया 'अंधा युग'ने। उन्होंने नाटकों के सौ से ज्यादा शो किये| हाल में उन्होंने अजामिल से साक्षात्कार में कहा- रंगयात्रा विधिपूर्वक सन् 1959 में आरम्भ हुई..पूरे आत्मविश्वास के साथ। उसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ तो मैने हिन्दी के अलवा गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि बहुत सी दूसरी भाषाओं में भी सौ से ज्यादा नाटको के कई-कई शोज किए। डा0 धर्मवीर भारती का सुप्रसिद्ध काव्य नाटक अन्धायुग मैंने पहली बार सन् 1952 में बम्बई में किया था। इसके सौ से अधिक शो मैंने वभिन्न शहरों में किये। सन् 1971 में मुझे संगीत नाटक अकादमी ने सम्मानित किया था, निर्देशन के लिए। सच तो ये है, कि मैंने अपनी रंगयात्रा में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और न मुझे कभी पूर्ण संतोष ही हुआ। आज इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी लगता है, कि अभी बहुत कुछ छूटा हुआ है, जिसे मैं कर सकता हूँ और मुझे करना चाहिए।इसमें संदेह नहीं कि तमाम टी0वी0 चैनलों और मनोरंजन के दूसरे साधन आसानी से उपलब्ध होने के कारण नाटक देखने वाले दर्शकों की संख्या में कमी आयी है, लेकिन हमने भी तो इन हालातों को रंगमंच की स्थिति मानकर चुप्पी साध रखी है। इलेक्ट्रानिक क्रान्ति से आतंकित होकर हम खुद ही नाटक को गए गुजरे जमाने की चीज मान बैठे हैं। क्या यह एक बड़ी भूल नहीं है ? क्या हमने कभी सोचा कि विभिन्न क्षेत्रों में हुए परिवर्तन के साथ-साथ रंगकर्म के आन्तरिक संकट भी यदि गहरे हुए हैं, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? हमारी प्रतिबद्धता और नाटक के प्रति वास्तविक निष्ठा में भी तो गिरावट आयी है। काम से ज्यादा हम आज धर्म और यश को क्या अन्तिम उपलब्धि नहीं मान बैठे हैं ? रंगमंच से जुड़ी नई तकनीकि के प्रति हमारी कोई रूचि, कोई रूझान कोई जिज्ञासा क्या कहीं दिखाई देती है ? लकीर के फकीर बने रहकर हम रंगमंच के विकास की दिशा मं कभी कुछ नहीं कर सकते। मैं कभी यह नही मानता कि दर्शकों को अगर अच्छी चीज दिखाई जाय तो वो उसे नहीं देखेंगें। दर्शकों के अभाव का संकट उन रंगकर्मियों के सामने ज्यादा गहरा है, जो अभी तक अपनी प्रस्तुतियों के प्रति अपने दर्शकों का विश्वास नहीं जीत पाये हैं।
उन्होंने यह भी कहा था-हिन्दी रंगमंच की सबसे बड़ी कमजोरी यही है, कि इसमें अभी तक पेशेवराना अंदाज नहीं बन सका है। पेशेवर अभिनेता को यहाँ दोयम दर्जे का अभिनेता माना जाता है। रंगकर्मियों में रंगकर्म को एक काम-चलाऊ अंदाज में देखने और करने की एक गंदी प्रवृत्ति यहाँ है। चल जायेगा, निकल जायेगा जैसा मुहावरा हिन्दी रंगमंच पर ही सुनने को मिलता है, जबकि रंगकर्मियों का विश्वास होना चाहिए कि यही सही है। मराठी अथवा बांग्ला रंगमंच पर प्रस्तुति, अभिनय और अभिनेता पूरी तरह प्रोफेशनल हो चुका है। दर्शक पूरे आत्मविश्वास के साथ इन भाषाओं के नाटकों को देखता है। सिर्फ बम्बई में ही डेढ़ सौ से लेकर दो सौ तक नये पुराने नाटक हर साल होते हैं, और हर नाटक के कई-कई शो किये जाते हैं। अनुदानों ने भी नाटकों का बड़ा अहित किया है। आज रंगकर्मी अपने दर्शकों के अनुराग पर कम, सरकार के अनुदान पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। सांस्कृतिक केन्द्रों, नाट्य-अकादमियों और बहुत सी दूसरी रंग-संस्थाओं ने कोई अनुराग-धर्मी रंगकर्मी पैदा होने ही नहीं दिया। रंगकर्म की जरा भी तमीज रखने वाले अधिकतर अधिकारियों ने अनुदान का लालच देकर रंगकर्मियों को कठपुतलियों में बदल दिया है। सारा कुछ अनुदानों, लेनदेन और पहुँच पर जाकर ऐसा सिमट गया है, कि दर्शक आज बेशऊर उपभोक्ता दिखाई देने लगा है। लाखों रूपये अनुदान के खर्च करके जब कोई संस्था नाटक अलीबाबा चालीस चोर करती है, तब उसके सामाजिक सरोकार स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। हिन्दी रंगमंच आज भी दरबारी रंगकर्म की सीमाओं में बँधा हुआ है। यहाँ सृजनात्मकता की लगभग हत्या हो चुकी है। हिन्दी रंगमंच के पास कोई सामाजिक समर्थन भी नहीं है। अनुदानों के भरोसे रंगकर्म जिन्दा नहीं रह सकता। यह काम जनचेतना से जुड़ा है, और जनता ही इसे जीवित रखती है। रंगकर्म एक उत्सव है, जो हमारे जीवन से जुड़कर साँस लेता है।
निर्देशक के रूप में उन्होंने 1956 में काम शुरू किया। वे अनेक मराठी व हिन्दी फ़िल्मों के निर्देशक रहे हैं। उन्हें 1971 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया है। श्याम बेनेगल निर्देशित भूमिका फिल्म में पटकथा लेखन के लिये उन्हें 1978 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। 1980 में जुनून फिल्म में संवाद लेखन के लिये उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला| 1971 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। बाद में भारत सरकार ने कला क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान को देखते हुए पद्म भूषण से सम्मानित किया। उन्हें फिल्म भूमिका के लिए 1978 में सर्वश्रेष्ठ पटकथा का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिया गया। सत्यदेव ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया और कुछ फिल्मों का निर्देशन भी किया है। उन्होंने निर्देशक श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी की फिल्मों संवाद और पटकथा भी लिखी। इनमें अंकुर (197।), निशांत (1975), भूमिका (1977), जुनून (1978), कलयुग (1980), आक्रोश (1980), विजेता (1982) और मंडी (1983) शामिल हैं।उनके निधन पर प्रसिद्ध रंगकर्मी रामगोपाल बजाज, देवेंद्र राज अंकुर आदि हस्तियों ने गहरा शोक व्यक्त किया है।
इसी साल गणतंत्र दिवस के मौके पर छत्तीसगढ़ के मशहूर सत्यदेव दुबे को पद्मभूषण दिये जाने की घोषणा हुई थी| दुबे जी थियेटर को रेप्रेज़ेंट करते रहे हैं | उन्होंने जो ठीक समझा वही किया |एक्टरों को उन्होनें सबसे पहले उसकी ज़मीन पर ठीक से खड़े रहना सिखाया अगर वो ऎसा नहीं कर पाया तो दुबेजी ने उसे डाट कर उसे ज़मीन पर ला कर खड़ा कर दिया। बम्बई की प्रशिद्ध संस्था 'थियटर यूनिट' ने सत्यदेव दुबे के निर्देशन में 'शुतुरमुर्ग़' के अनेक प्रदर्शन किये।
सत्यदेव दुबे (जन्म 1936) भारत के जानेमाने नाटककार, पटकथा लेखक, फिल्म व नाट्य निर्देशक रहे हैं। उनका जन्म छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में हुआ। शुरुआती दिनों में दूबेजी की क्रिकेट के प्रति दीवानगी थी और वे एक नामी क्रिकेटर बनना चाहते थे और अपने सपनों को पूरा करने के लिए मुंबई चले आए थे लेकिन शौकिया तौर पर एक थियेटर ग्रुप में शामिल हो गए थे| पी डी शिनॉय और निखिलजी का मार्गदर्शन रहा|
गिरीश कर्नाड के पहले नाटक ययाति और हयवदन. बादल सरकार के इंद्रजीत और पगला घोडा . मोहन राकेश के आधे अधूरे और विजय तेंदुलकर के खामोश अदालत जारी है जैसे नाटकों का मंचन कर भारतीय रंगमंच मे योगदान दिया|
सत्यदेव दूबे के पौत्र ने कहा वह पिछले कई महीने से कोमा थे । सत्यदेव दूबे को इस साल सितंबर महीने में जूहू स्थित पृथ्वी थियेटर कैफे में दौरा पड़ा था और तभी से वह कोमा में थे । इसके बाद से वे वह मस्तिष्क-आघात से जूझ रहे थे।
वे चर्चित नाटककार और निर्देशक थे| 'आधे अधूरे' और 'एवम इंद्रजीत' जैसे नाटकों के लिए प्रसिद्ध थे लेकिन उन्हें प्रसिद्ध किया 'अंधा युग'ने। उन्होंने नाटकों के सौ से ज्यादा शो किये| हाल में उन्होंने अजामिल से साक्षात्कार में कहा- रंगयात्रा विधिपूर्वक सन् 1959 में आरम्भ हुई..पूरे आत्मविश्वास के साथ। उसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ तो मैने हिन्दी के अलवा गुजराती, मराठी, अंग्रेजी आदि बहुत सी दूसरी भाषाओं में भी सौ से ज्यादा नाटको के कई-कई शोज किए। डा0 धर्मवीर भारती का सुप्रसिद्ध काव्य नाटक अन्धायुग मैंने पहली बार सन् 1952 में बम्बई में किया था। इसके सौ से अधिक शो मैंने वभिन्न शहरों में किये। सन् 1971 में मुझे संगीत नाटक अकादमी ने सम्मानित किया था, निर्देशन के लिए। सच तो ये है, कि मैंने अपनी रंगयात्रा में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और न मुझे कभी पूर्ण संतोष ही हुआ। आज इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी लगता है, कि अभी बहुत कुछ छूटा हुआ है, जिसे मैं कर सकता हूँ और मुझे करना चाहिए।इसमें संदेह नहीं कि तमाम टी0वी0 चैनलों और मनोरंजन के दूसरे साधन आसानी से उपलब्ध होने के कारण नाटक देखने वाले दर्शकों की संख्या में कमी आयी है, लेकिन हमने भी तो इन हालातों को रंगमंच की स्थिति मानकर चुप्पी साध रखी है। इलेक्ट्रानिक क्रान्ति से आतंकित होकर हम खुद ही नाटक को गए गुजरे जमाने की चीज मान बैठे हैं। क्या यह एक बड़ी भूल नहीं है ? क्या हमने कभी सोचा कि विभिन्न क्षेत्रों में हुए परिवर्तन के साथ-साथ रंगकर्म के आन्तरिक संकट भी यदि गहरे हुए हैं, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? हमारी प्रतिबद्धता और नाटक के प्रति वास्तविक निष्ठा में भी तो गिरावट आयी है। काम से ज्यादा हम आज धर्म और यश को क्या अन्तिम उपलब्धि नहीं मान बैठे हैं ? रंगमंच से जुड़ी नई तकनीकि के प्रति हमारी कोई रूचि, कोई रूझान कोई जिज्ञासा क्या कहीं दिखाई देती है ? लकीर के फकीर बने रहकर हम रंगमंच के विकास की दिशा मं कभी कुछ नहीं कर सकते। मैं कभी यह नही मानता कि दर्शकों को अगर अच्छी चीज दिखाई जाय तो वो उसे नहीं देखेंगें। दर्शकों के अभाव का संकट उन रंगकर्मियों के सामने ज्यादा गहरा है, जो अभी तक अपनी प्रस्तुतियों के प्रति अपने दर्शकों का विश्वास नहीं जीत पाये हैं।
उन्होंने यह भी कहा था-हिन्दी रंगमंच की सबसे बड़ी कमजोरी यही है, कि इसमें अभी तक पेशेवराना अंदाज नहीं बन सका है। पेशेवर अभिनेता को यहाँ दोयम दर्जे का अभिनेता माना जाता है। रंगकर्मियों में रंगकर्म को एक काम-चलाऊ अंदाज में देखने और करने की एक गंदी प्रवृत्ति यहाँ है। चल जायेगा, निकल जायेगा जैसा मुहावरा हिन्दी रंगमंच पर ही सुनने को मिलता है, जबकि रंगकर्मियों का विश्वास होना चाहिए कि यही सही है। मराठी अथवा बांग्ला रंगमंच पर प्रस्तुति, अभिनय और अभिनेता पूरी तरह प्रोफेशनल हो चुका है। दर्शक पूरे आत्मविश्वास के साथ इन भाषाओं के नाटकों को देखता है। सिर्फ बम्बई में ही डेढ़ सौ से लेकर दो सौ तक नये पुराने नाटक हर साल होते हैं, और हर नाटक के कई-कई शो किये जाते हैं। अनुदानों ने भी नाटकों का बड़ा अहित किया है। आज रंगकर्मी अपने दर्शकों के अनुराग पर कम, सरकार के अनुदान पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं। सांस्कृतिक केन्द्रों, नाट्य-अकादमियों और बहुत सी दूसरी रंग-संस्थाओं ने कोई अनुराग-धर्मी रंगकर्मी पैदा होने ही नहीं दिया। रंगकर्म की जरा भी तमीज रखने वाले अधिकतर अधिकारियों ने अनुदान का लालच देकर रंगकर्मियों को कठपुतलियों में बदल दिया है। सारा कुछ अनुदानों, लेनदेन और पहुँच पर जाकर ऐसा सिमट गया है, कि दर्शक आज बेशऊर उपभोक्ता दिखाई देने लगा है। लाखों रूपये अनुदान के खर्च करके जब कोई संस्था नाटक अलीबाबा चालीस चोर करती है, तब उसके सामाजिक सरोकार स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। हिन्दी रंगमंच आज भी दरबारी रंगकर्म की सीमाओं में बँधा हुआ है। यहाँ सृजनात्मकता की लगभग हत्या हो चुकी है। हिन्दी रंगमंच के पास कोई सामाजिक समर्थन भी नहीं है। अनुदानों के भरोसे रंगकर्म जिन्दा नहीं रह सकता। यह काम जनचेतना से जुड़ा है, और जनता ही इसे जीवित रखती है। रंगकर्म एक उत्सव है, जो हमारे जीवन से जुड़कर साँस लेता है।
निर्देशक के रूप में उन्होंने 1956 में काम शुरू किया। वे अनेक मराठी व हिन्दी फ़िल्मों के निर्देशक रहे हैं। उन्हें 1971 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया है। श्याम बेनेगल निर्देशित भूमिका फिल्म में पटकथा लेखन के लिये उन्हें 1978 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। 1980 में जुनून फिल्म में संवाद लेखन के लिये उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला| 1971 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। बाद में भारत सरकार ने कला क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान को देखते हुए पद्म भूषण से सम्मानित किया। उन्हें फिल्म भूमिका के लिए 1978 में सर्वश्रेष्ठ पटकथा का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी दिया गया। सत्यदेव ने कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया और कुछ फिल्मों का निर्देशन भी किया है। उन्होंने निर्देशक श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी की फिल्मों संवाद और पटकथा भी लिखी। इनमें अंकुर (197।), निशांत (1975), भूमिका (1977), जुनून (1978), कलयुग (1980), आक्रोश (1980), विजेता (1982) और मंडी (1983) शामिल हैं।उनके निधन पर प्रसिद्ध रंगकर्मी रामगोपाल बजाज, देवेंद्र राज अंकुर आदि हस्तियों ने गहरा शोक व्यक्त किया है।
इसी साल गणतंत्र दिवस के मौके पर छत्तीसगढ़ के मशहूर सत्यदेव दुबे को पद्मभूषण दिये जाने की घोषणा हुई थी| दुबे जी थियेटर को रेप्रेज़ेंट करते रहे हैं | उन्होंने जो ठीक समझा वही किया |एक्टरों को उन्होनें सबसे पहले उसकी ज़मीन पर ठीक से खड़े रहना सिखाया अगर वो ऎसा नहीं कर पाया तो दुबेजी ने उसे डाट कर उसे ज़मीन पर ला कर खड़ा कर दिया। बम्बई की प्रशिद्ध संस्था 'थियटर यूनिट' ने सत्यदेव दुबे के निर्देशन में 'शुतुरमुर्ग़' के अनेक प्रदर्शन किये।
7 comments:
मैनपुरी के सभी कला प्रेमियों की ओर से सत्यदेव दुबे साहब को शत शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि !
दुसरे पेराग्राफ में दुबे जी के जन्म का साल आपने १९३६ के जगह १९६३ लिख दिया है ... भूल सुधार लें !
भूल सुधार...
आभार आपका ...
http://burabhala.blogspot.com/2011/12/blog-post_1309.html
सत्यदेव दुबे जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
sbhi ke jivan men is yarah amarta nahin hoti ki jane ke bad bhi yad kiye jayen.....
aadarniya Dubeji ko vinamra shraddhanjali.
mere blog par avashya aayen svagat hae.
सादर नमन इस रंगकर्मी को .
IN VERY GOOD WAY YOU INKED THE WORK OF MR. DUBEY , THANX
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