सुरों के सरताज सुरेश वाडकर
शुक्रवार, 27 जनवरी 2012
सुरेश वाडेकर किसी परिचय के मुहताज नही हैं. रायपुर में एक सुरमयी शाम उन्होंने अपने साजिंदों के संग जोश से भरे गीतों की ऐसी महफ़िल सजाई कि मेडिकल कालेज रायपुर का सभागार उस दौर की संगीतमय पुरवाई में खो गया जब कालजयी गीत बनते थे और उनकी खुशबू से ज़माना महकता रहता था. अब ऐसे गीत क्यों नही बनते और गाने वाले क्यों नही हैं इस बहस में पड़ने की बजाय बताना ज्यादा लाजिमी है कि सुरेशजी की वाणी में अज भी ओज है और सोज भी है और जब उन्होंने पहली तान छेड़ी तो सभागार तालियों की गूँज से भर गया. एक ऐसी शाम रही जो श्रोताओं को लंबे समय तक याद रहेगी. सुनने वालों में मुख्य मंत्री डा. रमन सिंह, संस्कृति मन्त्री बृजमोहन अग्रवाल समेत समेत कई हस्तियों ने देर तक नगमों का आनंद लिया और गणतंत्र दिवस की शाम यादगार बनी.यह एक एक सर्द शाम थी मगर जोश भरती हुई गुजरी. जाने माने पार्श्व गायक सुरेश वाडेकर ने. सुरेश वाडेकर ने मंच पर आते ही सीने में जलन सी क्यूं है...आंखों में तूफान सा क्यूं है.. गाना शुरू किया तो सचमुच सीने में दबे हुए नगमों की कसक तालियों में ढलने लगी सुरेश वाडेकर ने अपना एक और लोकप्रिय गीत – ए जिदंगी गले लगा ले पेश किया तो हाल में तरन्नुम में डूब गया.
कुल मिलाकर एक ऐसी सुरमयी साज और आवाज की वह शाम श्रोताओं को लंबे समय तक याद रहेगी.
सुरेशजी के गायन से पहले कविता वासनिक और साथियों ने चंद मिनटों के चित्रहारनुमा कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के सुआ करमा ददरिया भरथरी और पारंपरिक नृत्य-गीतों की समूह प्रस्तुति से सबका मन मोह लिया.
सुरेशजी ने चार साल की उम्र से ही गाना -बजाना प्रारंभ कर दिया था. उनके पिताजी को शायद कहीं पर लगा होगा उनमे प्रतिभा है इसीलिए उन्होंने उन पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया.उन्होंने कहा था कि तुम्हारी पढाई लिखाई थोड़ी कम रहेगी तो चलेगा पर संगीत पीछे नहीं होना चाहिए.1954 में जन्में सुरेश वाडकर ने संगीत सीखना शुरू किया जब वो मात्र 10 वर्ष के थे. पंडित जयलाल वसंत थे गुरु. कहते हैं उनके पिता ने उनका नाम सुरेश (सुर+इश) इसलिए रखा क्योंकि वो अपने इस पुत्र को बहुत बड़ा गायक देखना चाहते थे.
उनका पहला गाना राजश्री प्रोड़कशन की पहेली फिल्म में आया था " वृष्टि पड़े टापुर टुपुर ". इस गाने के लिए पूरा श्रेय रवीन्द्र जैन साहब को जाता है, क्योंकि पहला ब्रेक उन्होंने ही दिया.ये गाना 2 अगस्त 1977 को रिकॉर्ड किया गया था. सुरेश वाडेकर की संगीत यात्रा की शुरूआत एक तरह से "गमन" से हीं हुई थी। १९७६ में आयोजित "सुर श्रृंगार" प्रतियोगिता के कई सारे निर्णयकों में जयदेव भी एक थे. इस स्पर्धा को जीतने के बाद इन्हें जयदेव की तरफ़ से गायकी का निमंत्रण मिला. "सीने में जलन" अगर इनका पहला गीत न भी हुआ तो भी शुरूआती दिनों के सदाबहार गाने में इसे ज़रूर हीं गिना जा सकता है।लता दीदी इनकी आवाज़ से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने "लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल","खय्याम","कल्याण जी-आनंद जी" जैसे संगीतकारों से इनकी सिफ़ारिश कर डाली.रामायण धारावाहिक में संगीत देकर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचे रवीन्द्र जैन के नाम पर मुंबई की उदीयमान संस्थान ने एक पुरस्कार शुरू किया है जिसने पहले 2011 में साल खुद रवीन्द्र जैन के हाथों गायक सुरेश वाडेकर को दिया गया. "प्रेम रोग" के अलावा "क्रोधी", "हम पाँच", "प्यासा सावन","मासूम", "सदमा", "बेमिसाल", "राम तेरी गंगा मैली", "ओंकारा" जैसी फिल्मों में भी इन्होंने सदाबहार गाने गाए हैं। 2007 में महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें "महाराष्ट्र प्राईड अवार्ड" से सम्मानित किया .सुरेशजी को सही पहचान मिली राम तेरी गंगा मैली फिल्म और प्रेम रोग फिल्म में गाए गानों से. सुप्रसिद्ध स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का भी बहुत बड़ा योगदान उनके कैरियर को संवारने में रहा है. एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद कहा कहा -जी हाँ एकदम सही है मेरे करियर में लताजी और आशाजी का बहुत बड़ा हाथ है.उन्होंने मेरे गाने सुने और खुद से ही फ़ोन कर के मेरी तारीफ की और बहुत सी जगह पर कहा कि मैं एक लड़का भेज रही हूँ इसको एक मौका अवश्य दे.जब स्वयं माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिल जाए तो फिर और क्या चाहिए.
मेघा रे, मेघा रे..चप्पा चप्पा चरखा चले, सपने में मिलती है... "गोरों की न कालों की"(बप्पी लाहिरी), "ऐ जिंदगी गले लगा ले"(इल्लायाराजा) और "लगी आज सावन की'(शिव हरी), उनके खाते के हिट गीत हैं. सुरेशजी ने स्व. मोहम्मद रफ़ीजी के साथ भी एक गाना गाया था-अनपढ़ फिल्म में. सुरेशजी ने संगीत का एक मेरा मुंबई में संगीत प्रशिक्षण विद्यालय शुरू किया है जहाँ हजारो बच्चे शिक्षा पा रहे हैं. उसकी एक शाखा न्यू जर्सी में भी खोली है, यहाँ भी बहुत से बच्चे शिक्षा पा रहे हैं. इस पर उनकी राय है- "मेरे पास अपना क्या है? हमने पूज्य गुरु से जो सीखा है, उसे आने वाली पीढ़ी को और बच्चों को दे रहा हूँ। आखिर उसे छाती पर बाँधकर कहाँ ले जाएँगे। विद्या को जितना बाँटेंगे, मस्तिष्क उतना ही जागृत और परिष्कृत होगा। गाना सिखाने से आपका अपना रियाज तो होगा ही, आपकी सूझबूझ और खयाल विस्तृत होगा। जो आदमी खुद की आत्मसात विद्या को छाती पर बाँधकर ले जाता है, वह दुनिया का सबसे बड़ा स्वार्थी व कंजूस व्यक्ति है। विद्या बाँटने से बढ़ती है, न घटती है और न ही कम होती है
उन्होंने एक इंटरव्यू में यह भी कहा है- मैं बहुत भाग्यशाली रहा कि जब-जब भी अच्छे और कुछ अलग किस्म के गाने बने तो मुझे बुलाया गया। हमारा बड़ा भाग्य रहा कि पूरी इंडस्ट्री में जब अनेक नामचीन और स्थापित गायक कार्यरत थे तो रवीन्द्र जैनजी ने मुझे अवसर दिया। यह मामूली बात नहीं है कि जब फिल्म इंडस्ट्री में पैर रखना मुश्किल होता था तो मुझ जैसे नए कलाकार के हिस्से में इतनी मुश्किल तर्जे आई और गाने को मिली। आज उन्हीं सब बुजुर्गों, गुरुजनों और सुनने वालों के आशीर्वाद से मैं 33 साल से गाने की कोशिश कर रहा हूँ।
सुरेशजी ने 1998 में केरल की पदमाजी से शादी की और ख़ास यह है कि बाय पास सर्जरी के बावजूद उनकी आवाज में दमखम है और मंच पर छा जाने का हुनर भी और सबसे ख़ास यह कि गाने के नाम पर भोंडापन परोसते संगीतकारों-गायकों की भजन मंडली में वे बिलकुल अलग है.
कुल मिलाकर एक ऐसी सुरमयी साज और आवाज की वह शाम श्रोताओं को लंबे समय तक याद रहेगी.
सुरेशजी के गायन से पहले कविता वासनिक और साथियों ने चंद मिनटों के चित्रहारनुमा कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के सुआ करमा ददरिया भरथरी और पारंपरिक नृत्य-गीतों की समूह प्रस्तुति से सबका मन मोह लिया.
सुरेशजी ने चार साल की उम्र से ही गाना -बजाना प्रारंभ कर दिया था. उनके पिताजी को शायद कहीं पर लगा होगा उनमे प्रतिभा है इसीलिए उन्होंने उन पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया.उन्होंने कहा था कि तुम्हारी पढाई लिखाई थोड़ी कम रहेगी तो चलेगा पर संगीत पीछे नहीं होना चाहिए.1954 में जन्में सुरेश वाडकर ने संगीत सीखना शुरू किया जब वो मात्र 10 वर्ष के थे. पंडित जयलाल वसंत थे गुरु. कहते हैं उनके पिता ने उनका नाम सुरेश (सुर+इश) इसलिए रखा क्योंकि वो अपने इस पुत्र को बहुत बड़ा गायक देखना चाहते थे.
उनका पहला गाना राजश्री प्रोड़कशन की पहेली फिल्म में आया था " वृष्टि पड़े टापुर टुपुर ". इस गाने के लिए पूरा श्रेय रवीन्द्र जैन साहब को जाता है, क्योंकि पहला ब्रेक उन्होंने ही दिया.ये गाना 2 अगस्त 1977 को रिकॉर्ड किया गया था. सुरेश वाडेकर की संगीत यात्रा की शुरूआत एक तरह से "गमन" से हीं हुई थी। १९७६ में आयोजित "सुर श्रृंगार" प्रतियोगिता के कई सारे निर्णयकों में जयदेव भी एक थे. इस स्पर्धा को जीतने के बाद इन्हें जयदेव की तरफ़ से गायकी का निमंत्रण मिला. "सीने में जलन" अगर इनका पहला गीत न भी हुआ तो भी शुरूआती दिनों के सदाबहार गाने में इसे ज़रूर हीं गिना जा सकता है।लता दीदी इनकी आवाज़ से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने "लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल","खय्याम","कल्याण जी-आनंद जी" जैसे संगीतकारों से इनकी सिफ़ारिश कर डाली.रामायण धारावाहिक में संगीत देकर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचे रवीन्द्र जैन के नाम पर मुंबई की उदीयमान संस्थान ने एक पुरस्कार शुरू किया है जिसने पहले 2011 में साल खुद रवीन्द्र जैन के हाथों गायक सुरेश वाडेकर को दिया गया. "प्रेम रोग" के अलावा "क्रोधी", "हम पाँच", "प्यासा सावन","मासूम", "सदमा", "बेमिसाल", "राम तेरी गंगा मैली", "ओंकारा" जैसी फिल्मों में भी इन्होंने सदाबहार गाने गाए हैं। 2007 में महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें "महाराष्ट्र प्राईड अवार्ड" से सम्मानित किया .सुरेशजी को सही पहचान मिली राम तेरी गंगा मैली फिल्म और प्रेम रोग फिल्म में गाए गानों से. सुप्रसिद्ध स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का भी बहुत बड़ा योगदान उनके कैरियर को संवारने में रहा है. एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद कहा कहा -जी हाँ एकदम सही है मेरे करियर में लताजी और आशाजी का बहुत बड़ा हाथ है.उन्होंने मेरे गाने सुने और खुद से ही फ़ोन कर के मेरी तारीफ की और बहुत सी जगह पर कहा कि मैं एक लड़का भेज रही हूँ इसको एक मौका अवश्य दे.जब स्वयं माँ सरस्वती का आशीर्वाद मिल जाए तो फिर और क्या चाहिए.
मेघा रे, मेघा रे..चप्पा चप्पा चरखा चले, सपने में मिलती है... "गोरों की न कालों की"(बप्पी लाहिरी), "ऐ जिंदगी गले लगा ले"(इल्लायाराजा) और "लगी आज सावन की'(शिव हरी), उनके खाते के हिट गीत हैं. सुरेशजी ने स्व. मोहम्मद रफ़ीजी के साथ भी एक गाना गाया था-अनपढ़ फिल्म में. सुरेशजी ने संगीत का एक मेरा मुंबई में संगीत प्रशिक्षण विद्यालय शुरू किया है जहाँ हजारो बच्चे शिक्षा पा रहे हैं. उसकी एक शाखा न्यू जर्सी में भी खोली है, यहाँ भी बहुत से बच्चे शिक्षा पा रहे हैं. इस पर उनकी राय है- "मेरे पास अपना क्या है? हमने पूज्य गुरु से जो सीखा है, उसे आने वाली पीढ़ी को और बच्चों को दे रहा हूँ। आखिर उसे छाती पर बाँधकर कहाँ ले जाएँगे। विद्या को जितना बाँटेंगे, मस्तिष्क उतना ही जागृत और परिष्कृत होगा। गाना सिखाने से आपका अपना रियाज तो होगा ही, आपकी सूझबूझ और खयाल विस्तृत होगा। जो आदमी खुद की आत्मसात विद्या को छाती पर बाँधकर ले जाता है, वह दुनिया का सबसे बड़ा स्वार्थी व कंजूस व्यक्ति है। विद्या बाँटने से बढ़ती है, न घटती है और न ही कम होती है
उन्होंने एक इंटरव्यू में यह भी कहा है- मैं बहुत भाग्यशाली रहा कि जब-जब भी अच्छे और कुछ अलग किस्म के गाने बने तो मुझे बुलाया गया। हमारा बड़ा भाग्य रहा कि पूरी इंडस्ट्री में जब अनेक नामचीन और स्थापित गायक कार्यरत थे तो रवीन्द्र जैनजी ने मुझे अवसर दिया। यह मामूली बात नहीं है कि जब फिल्म इंडस्ट्री में पैर रखना मुश्किल होता था तो मुझ जैसे नए कलाकार के हिस्से में इतनी मुश्किल तर्जे आई और गाने को मिली। आज उन्हीं सब बुजुर्गों, गुरुजनों और सुनने वालों के आशीर्वाद से मैं 33 साल से गाने की कोशिश कर रहा हूँ।
सुरेशजी ने 1998 में केरल की पदमाजी से शादी की और ख़ास यह है कि बाय पास सर्जरी के बावजूद उनकी आवाज में दमखम है और मंच पर छा जाने का हुनर भी और सबसे ख़ास यह कि गाने के नाम पर भोंडापन परोसते संगीतकारों-गायकों की भजन मंडली में वे बिलकुल अलग है.
3 comments:
कालजयी गीतों का जमाना याद दिला दिया आपकी पोस्ट ने। यादगार पोस्ट।
कार्यक्रम और सुरेश जी का बढि़या परिचय.
dhanyavaad, aaj aapne apne blog ke jariye sureshji ka parichay mila . is bejod fankaar ke liye bus itna hi n bhoolenge ham kabhi sursangam ki yah gaatha .
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