कालाहाण्डी की रानी बचाती पानी

शुक्रवार, 1 मई 2009


पश्चिमी उड़ीसा  के कालाहांडी अंचल में भुखमरी की एक अहम वजह पानी की किल्लत मानी जाती है। इलाके के राजपरिवार ने अब इस दिशा में कुछ सार्थक प्रयास शुरू किये हैं जिनकी कामयाबी साबित करती है कि इस तरह की देसी तकनीक को सरकारी स्तर पर बढ़ावा दिया जाए तो कभी अनावृष्टि और कभी अतिवृष्टि का कोपभाजन बनने वाले इलाकाई किसानों को दोहरी फसल का भी लाभ मिल सकता है।

कालाहांडी क्षेत्र का एक कस्बा राजाखरियार है। यहां राजपरिवार का प्राचीन महल है। जिसकी महारानी राजश्री देवी महल से बाहर निकल कर अपनी रियाया की तकलीफों का स्थानीय समाधान ढूंढने में जुटी हैं। उन्होंने क्षेत्र में एक देसी तकनीक के जरिए वर्षा जल प्रबंधन को बढ़ावा दिया है और दिलचस्प यह है कि वे खुद भी कमर कस कर खेतों में जुट जाती है। 48 वर्षीय राजश्री देवी के मुताबिक 'विवाह के बाद जब मैं राजाखरियार आई तो मुझे हमेशा यह बात चुभती थी कि क्षेत्र के किसान सिर्फ एक फसल ही ले पाते हैं जबकि दूसरे इलाकों में दोहरी फसल ली जाती है। फिर इधर भुखमरी और बदहाली की निरंतर उठती खबरों ने भी मुझे काफी परेशान किया। मुझे लगा कि इस समस्या का समाधान खेतों में ही निकलेगा। इसी उधेड़बुन में दिल्ली में विज्ञान भवन में मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार चटर्जी से मुलाकात हुई। वे भी पश्चिमी उड़ीसा की बदहाली से काफी द्रवित थे। उनके सुझाव पर हमने फाइव परसेंट तकनीक का इस्तेमाल शुरू किया।'

राजश्री देवी के मुताबिक इस तकनीक में एक साधारण सा फार्मूला है जिसमें बरसात के पानी को ढलाव के प्रमुख बिन्दु पर एक गङ्ढे में जमा कर देना होता है। खेत के कुल रकबे के पांच प्रतिशत हिस्से में एक तीन फीट गहरा गङ्ढा खोद दिया जाता है। यह तकनीक इस प्रकार लागू की जाती है कि गङ्ढे में भरे पानी से आस-पास भूजल स्तर कायम रहे और बारिश का क्रम बिगड़ने पर सूखते पौधों को पर्याप्त नमी मिल सके। यह तकनीक सबसे पहले राजपरिवार के खेतों में लागू हुई जिसके आशातीत नतीजे मिले। अब इसे और किसान भी लागू कर रहे हैं।

महारानी राजश्री देवी का कहना है कि इलाके में गरीबी का प्रमुख कारण अवर्षा, अतिवर्षा या खंडवर्षा है जिससे अक्सर फसल चौपट हो जाती है। पहले राजा-महाराजा पोखर या बावली बनवाते थे। इसके लिए बाकायदा जगह चिन्हित की जाती थी और वर्षाजल का संग्रहण व संरक्षण किया जाता था। पश्चिमी उड़ीसा में धान प्रमुख फसल है। इसे शुरू में भरपूर पानी चाहिए। ज्यादातर लोगों की आर्थिक हालत ऐसी नही ंहै कि पक्के निर्माण करा सकें या फिर आधुनिक यंत्रों से सिंचाई कर सकें।

राजश्री देवी के अनुसार मेरे देखने में यह भी आया कि खेत में मेड़ के काम में भी किसानों को बेहद खर्च करना पड़ता है। अमूमन होता यह है कि खेत में पानी भर जाने पर मेड़ को काट कर पानी निकाला जाता है। फसल चक्र पूरा होने पर फिर से मेड़ बनाने में ही किसानों को श्रमसाध्य तरीके से अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ता है। फाइव परसेंट तकनीक से इस मद में भी बचत होगी।

रिचार्ज टेंक की दूसरी तकनीक से भी भूमि में जल पहुंचाया जाता है। इस तकनीक का प्रयोग खरियार ब्लाक के नरसिंहपुर में 638 हेक्टेयर जमीन पर सफल रहा है। इसमें सतह से डेढ़ फीट नीचे ढांचा बनाकर पाइप के जरिये पानी निकासी की व्यवस्था की जाती है। इस पाइप के साथ रेत और मिट्टी की परत बिछा दी जाती है जिससे पानी का निकास उचित मात्रा में होता रहता है और भू-जल स्तर बना रहता है। साथ ही मिट्टी के पोषक तत्व भी कायम रहते हैं। इस तकनीक को लागू करने से पहले मिट्टी जांच और सिल्ट मानिटरिंग की प्रक्रिया अपनायी जाती है। यह तकनीक केंद्र सरकार के विज्ञान और टेक्ालॉजी विभाग ने लागू की है जिसे नुआपड़ा जिले के सरगादी गांव में सफलतापूर्वक लागू किया गया है। आश्चर्य यह कि अब तीन फसलें भी ली जा रही हैं।

राजश्री देवी का पूरा कुनबा राजनीति में सक्रिय है। उनके ससुर मंत्री रह चुके हैं। लेकिन उनका मन समाजसेवा में ज्यादा रमता है। उन्होंने ब्रजराज सेवा समिति भी बनाई है जिसकी वे अध्यक्ष हैं। राजश्री देवी कहती हैं कि पश्चिमी उड़ीसा की तस्वीर अब बदलनी चाहिेए और इसके लिए जमीनी स्तर पर भी प्रयास तेज किये जाने चाहिए। वे यह भी कहती हैं कि यहां के आदिवासी निरक्षर जरूर हैं, लेकिन अड़ियल नहीं।

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