लहू के दो रंग

शुक्रवार, 14 मई 2010


यह खबर छोटी जरूर थी मगर निराशा के घनघोर अँधेरे में रोशनी की एक किरण जरूर दिखाती है और यह भीना एहसास कराती है कि सब कुछ अभी ख़त्म नहीं हुआ है| इंसानियत का जज्बा अभी भी बाकी है और जिन हाथों में खून बहाने वाने अत्याधुनिक हथियार है, वे इस देश की महान परम्पराओं को भूले नहीं हैं और वक्त आने पर हथियार फेंक कर मानवता की खातिर उस शख्स की मदद भी कर सकते हैं जो खुद मददगार के लहू का प्यासा रहा है|खबर सरगुजा से आई|

छत्तीसगढ़ में नक्सली भले ही सुरक्षा बलों के जवानों को मौत के घाट उतार रहे हैं मगर मुठभेड़ में घायल हुए नक्सली चंद्रिका यादव को जरूरत पड़ने पर पुलिस के जवान अस्पताल में अपना खून भी दे कर उनकी जान बचाने से पीछे नहीं रहे| पिछले हफ्ते की इस घटना में सरगुजा जिले में सक्रिय नक्सलियों के साथ पुलिस की जबरदस्त मुठभेड़ हुई जिसमे जम कर गोलीबारी हुई और नक्सली अपने घायल साथी चंद्रिका यादव को छोड़ कर भाग निकले जिसका पुलिस इलाज करा रही है|
सरगुजा जिले के पुलिस अधीक्षक एन. के. एस. ठाकुर के अनुसार पुलिस को इत्तला मिली थी कि सूरजपुर पुलिस जिले के चांदनीबहार गांव के काफी संख्या में नक्सलियों का जमावड़ा हुआ है| सूचना पा कर पुलिस दल जब मौके पर पहुंचा तो नक्सलियों ने फायरिंग शुरू कर दी| जवाब में चांदनी बहार थाना के प्रभारी एसएस पटेल के नेतृत्व में पुलिस दल ने भी गोलियां चलाई|
पुलिस ने जब मोर्चा सम्हाल लिया तो नक्सली घटनास्थल से भाग गए लेकिन उनका साथी नक्सली चंद्रिका यादव जो बुरी तरह घायल हो गया, पुलिस दल ने उसे पकड़ लिया| उस पर दस हजार रुपये का इनाम घोषित है| पुलिस जवानों ने इंसानियत का फर्ज अदा करते हुए उस घायल नक्सली को सीधे चांदनीबहार गांव के अस्पताल में दाखिल कराया जहां चिकित्सकों ने उसके कमर में लगी गोली और उसकी खराब हालत को देखते हुए सरगुजा जिले के मुख्यालय अंबिकापुर के जिला अस्पताल में भर्ती कराने की सलाह दी| इसके बाद एक सिपाही ने अपना खून देकर इस नक्सली की जान बचाई। अब उस नक्सली का इलाज चल रहा है| राज्य के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन के मुताबिक़ पुलिस मानवता के प्रति अपने दायित्व को निभाना जानती है और यह सबक उन लोगों को भी सीखने की जरुरत है जो बेगुनाहों का खून बहा रहे हैं|

नक्सलवाद के नाम पर बंदूकें उठाए घूम रहे लड़ाकों और उनको दिग्भ्रमित कर के एक अंधेरी सुरंग में धकेलने वालों को भी इस खबर पर गौर करना चाहिए कि एक अंतहीन लड़ाई का अंजाम आखिर क्या होगा| अब खबर यह भी आनी चाहिए कि नक्सलियों ने किसी घायल सिपाही का इलाज कराया और उसकी जान बचाई| अव्वल तो यह गोली की भाषा ही बंद होनी चाहिए| बन्दूक तंत्र की इस भाषा ने सभ्यताओं को खून से रंगा है और संस्कृतियों को रुलाया है| इस रास्ते से भला किसी का नहीं हुआ| इस दौर में यह बात थोथा आदर्श लग सकती है मगर वक्त की मांग तो शायद यही है|

2 comments:

दिनेश शर्मा 14 मई 2010 को 7:27 am बजे  

सारगर्भित लेख।

ओमप्रकाश चन्द्राकर 14 मई 2010 को 10:49 am बजे  

ये एक सीख है समाज के उन कथित ठेकेदारों के लिए ... जो बन्दूक के दम पर शोषण के खिलाफ लड़ाई की बेफजूल बात करते है .....

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