बामुलाहिजा बिनायक सेन

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010


मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं चिकित्सक बिनायक सेन को रायपुर की एक अदालत ने देशद्रोह के आरोप में सजा क्या सुनाई दुनिया-भर में बौद्धिक भूचाल आ गया है| अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई है| सेन की वयोवृद्ध माताजी ने भी अपने बेटे को बेकसूर माना है और रिहाई की अपील की है| ख़ास कर के नेट जगत में इस फैसले की जम कर मजम्मत की जा रही है |सेन और उनके दीगर दो सजा पाए कथित साथियों पर छत्तीसगढ़ में माओवादियों को मदद पहुंचाने का आरोप है और सरकारी वकीलों का आरोप है कि उन्होंने माओवादी नेटवर्क को मजबूत करने में मदद की है| हालांकि सेन हमेशा खुद को बेकसूर बताते रहे हैं. उन्होंने एक ताजा बयान जारी कर कहा है कि उनके खिलाफ सबूत गलत तरीके से जुटाए गए|सेन ने अपने बयान में कहा, "छत्तीसगढ़ सरकार मुझे मिसाल बना कर पेश करना चाहती है कि कोई दूसरा व्यक्ति राज्य में मानवाधिकार की बात न करे."

सेन समर्थक कह रहे हैं कि उनको सुनाई गई सजा कानूनी आधार पर खरी नहीं उतरती। उनके खिलाफ कोई गवाह तक नहीं है। दस्तावेजी सबूत भी देशद्रोह का आरोप सिद्ध नहीं करते| फैसले की आलोचना करने वालों का कहना है कि डॉ. सेन को सीपीआई (माओवादी) का करीबी बताया गया है, जिसका आधार दो पुलिसवालों का निराधार बयान है।

उन्हें रिहा करने के लिए इंटरनेट पर फेसबुक और ट्विटर के जरिए बड़ा अभियान शुरू हो चुका है| सजा के खिलाफ वामपंथी रुझान रखने वाले तमाम बुद्धिजीवी लामबंद हो गए हैं। दिल्ली समेत देश भर में कई जगहों पर प्रदर्शन हुए हैं । इन बुद्धिजीवियों का हस्ताक्षरित आरोप है कि सेन को जानबूझकर फंसाया गया है।

उनके वकील कोलिन गोंजाल्वेज ने सर्वोच्च अदालत के आदेशों को नजरअंदाज करने वाला फैसल बताया। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह विरुद्ध बिहार के मामले में कहा था कि देशद्रोह के आरोपों को संविधान द्वारा दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में भी परखना चाहिए|देशद्रोह का अपराध तभी साबित होता है, जब राज्य के खिलाफ बगावत फैलाने का असर सीधे तौर पर हिंसा और कानून-व्यवस्था के गंभीर उल्लंघन के रूप में सामने आए।

इन पलट आरोपों की रोशनी में देखा जाए तो सेन के मामले में ऐसा लगता है कि कोर्ट ने मानो उनको जबरिया सजा सुनाई है | फैसले के पक्षधर लोगों की तरफ से कहा जा सकता है कि सेन समर्थक सिर्फ एकांगी चश्मे से चीजों को देख रहे हैं| सवाल है कि सेन ने ऐसा क्या किया जो वे सुरक्षा बलों की निगाह में आ गए| इसके लिए बस्तर में लौटना होगा| बस्तर में सलवा जुडूम आन्दोलन चला जो नक्सली हिंसा के खिलाफ था| इस पर पूरे राज्य में औसतन सकारात्मक प्रतिक्रिया आई| हिंसा से आजिज लोगों ने जुलूस निकाले और नक्सलियों की खिलाफत की| 2005 में यह हुआ| हालात ऐसे मोड़ पर आ खड़े हुए कि तब से एक वर्ग जिसमे सेन भी रहे हैं , ने सलवा जुडूम का विरोध किया| सवाल था कि सलवा जुडूम के विरोध का मतलब नक्सलियों का अघोषित समर्थन| इस विरोध के बाद सेन अपनी साफगोई और सादगी के शिकार हुए| वे जेल में बंद संदेहियों से मिलते रहे,पत्र पहुंचाते धरे गए(आरोप है )|वे जिस विचारधारा से जुड़े वो हिंसा को गलत नहीं मानती| साबित हो जाने पर क़ानून गलत मानता है|

गरीबों के इलाज का जो रास्ता उनने पकड़ा वो तो ठीक था, स्तुत्य था.. मगर खुद श्री सेन भी शायद नही जानते होंगे कि अचानक चलते-चलते वे एक ऐसी बारूदी सुरंग में फंस गए जिसमे दोनों तरफ खतरे थे| फिर एक समय भी आया जब नक्सलियों ने वामपंथियों को भी शर्मिन्दा किया तो सेन ने नक्सली हिंसा की निंदा भी की लेकिन तब तक हालात बेकाबू हो चुके थे और अब तो हालात यह हैं कि नक्सली रहें या राज्य सत्ता| नक्सलियों ने जिस प्रकार जवानों को एम्बुश में फंसा कर उनको मारा , उसकी दिल्ली और दुनिया-भर में प्रतिक्रिया हुई| अब तक बस्तर में आदिवासियों का शोषण हो रहा था, ठेकेदार लूट रहे थे, अफसर घूस लेते थे, सब चलता था. मगर शोषण का जवाब हिंसक शोषण तो नहीं है| अब वहाँ युद्ध के हालात हैं| सीधी लड़ाई है कि नक्सली रहें या सरकार... तो इसमें जो भी सामने पडेगा वो चिन्हित होगा| सेन साब के प्रति परिचय न होते हुए भी सम्मान की भावना है कि उनने डाक्टरी छोड़ कर गरीबों की सेवा का रास्ता चुना वरना आजकल तो लोग मेडिकल पढ़ते हुए ही नर्सिंग होम खोलने की जुगत में भिड जाते हैं| जो भी अमरीका, दिल्ली या दूर-दराज में बैठ कर चिंतित हैं, उनको यहाँ की स्थिति आ कर देखनी चाहिए कि वे जिन आदिवासियों की बात कर रहे हैं वो सिर्फ शान्ति चाहता है| नक्सली, क्रान्ति लाने में बस्तर के तीस साल निकाल चुके अब सरकार को शान्ति लाने का वायदा पूरा करने के लिए कुछ साल देने में क्या हर्ज है|

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