यादों में बाबूजी-(1)
सोमवार, 17 जनवरी 2011
------------------------------------------
**************
------------------------------------------
मेरे पिता को गुजरे हुए 14 साल बीत चुके हैं लेकिन वे लगातार मेरी स्मृतियों में बने रहे हैं|
ये स्मृतियाँ मुझे आगे बढ़ने की शक्ति देती हैं और गहन उदासी के पलों में आंतरिक संबल बनी रहती हैं|
जाने किन-किन पलों में उनके बारे में लिखता चला गया| कई दिन.. कई माह गुजरे और अब न जाने क्यूं लगता है कि मैंने बाबूजी पर जो लिखा वह मेरी निजी डायरी का हिस्सा भर नहीं होना चाहिए|
मेरे अंतस की गहराईयों से दुआ उनके लिए जिनके "बाबूजी" हैं, वे उनको संभालें, बरगद की छाँव नसीब से मिलती है|
गिरीशजी का शेर है-
''जब बुजुर्गों की दुआएं साथ रहती हैं
यूं लगे शीतल हवाएं साथ रहती हैं''
-------------------------------------------
**************
-------------------------------------------
जीवन जब से शुरू हुआ है तभी से संघर्ष उसके साथ जुड़ा हुआ है|
हरेक जीव अपने जीने के लिए संघर्ष करता है|
जीवन में आने का संघर्ष, जीवन को बचाने और अपने मुताबिक़ पूर्णत्व को पाने के साथ ही समाप्त होता है|
कुछ लोग जीवन के संघर्ष से दुखी हो कर तमाम उम्र रुआंसे रह जाते हैं तो कुछ अपने जीवन के संघर्ष में तप कर सोने के कुंदन हो जाने की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं और उनका जीवन एक मिसाल बन जाता है-दूसरों के लिए|
लगन और मेहनत से वे जीवन में ही बहुत कुछ हासिल कर लेते हैं|
सोन महाराज का जीवन भी कुछ ऐसा ही था| माँ-पिता के इकलौते पुत्र| लाड-प्यार में पले-बढे| राजस्थान के जिला जोधपुर-फलोदी-लोहावट में जन्मे मगर तकदीर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा ले आई|
तब पश्चिमी उड़ीसा का एक बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ अर्थात दक्षिण कोसल का ही एक अंग था|
सोन महाराज उनका प्रचलित नाम था-पूरा नाम था सोहनलालजी शर्मा| घर के लोग सोनू कहते|
बड़े घरानों में मुनीम ब्राह्मण को महाराज कह कर बुलाया जाता है लिहाजा वे सोन महाराज के नाम से ही जाने गए|
बचपन से कुशाग्र बुद्धि थे और सहनशीलता,परोपकार,त्यागवृत्ति और सबसे दुर्लभ मानवीय गुण मैत्री समभाव उनके स्वभाव के आभूषण रहे| अपने इन्ही गुणों की बदौलत वे जहां भी रहे उन्होंने सम्मान हासिल किया और सर्वात्मीय बने रहे|
सोन महाराज के पिता अचलदासजी अपने जमाने के दबंग शिक्षक थे और राजस्थान में उनके पढाए हुए छात्र मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पंहुचे.. लेकिन शायद दीपक तले ही अन्धेरा रहता है|
पढने-लिखने में कुशल रहने के बावजूद परिस्थितियों ने ऐसा घेरा कि सोन महाराज कालेज की पढाई भी पूरी नहीं कर सके और विभाजन के दिनों में जब पूरे देश में उथल-पुथल थी, पूरा परिवार भीषण दुर्भिक्ष की चपेट में आ कर पलायन के लिए विवश हो गया|
सोन महाराज का पूरा कुनबा राजस्थान से रायपुर आ गया| घर पर कुल चार प्राणी| छोटी बहन नरबा और माता बलजीबाई| रायपुर आने के बाद अचलदासजी का कार्यक्षेत्र बदल गया| उनके भाई रिखबदासजी रायपुर की अनेक व्यापारिक फर्मों में मुनीम थे लिहाजा अपने भाई अचलदासजी का उन्होंने इसी लाईन में पुनर्वास करा दिया| शिक्षा क्षेत्र की पटरी से उखड़ कर अचलदासजी काम तो करते रहे मगर जम नहीं पाए| नतीजा यह हुआ कि सोन महाराज पर समय से पहले परिवार की जिम्मेदारी आ गयी|
विस्थापन के उस दौर में सोन महाराज बमुश्किल 10 बरस के रहे होंगे | रायपुर के हिन्दू हाई स्कूल में दाखिल जरूर हुए मगर कालेज तक नहीं पहुँच पाए|
.................(जारी)...........................
**************
------------------------------------------
मेरे पिता को गुजरे हुए 14 साल बीत चुके हैं लेकिन वे लगातार मेरी स्मृतियों में बने रहे हैं|
ये स्मृतियाँ मुझे आगे बढ़ने की शक्ति देती हैं और गहन उदासी के पलों में आंतरिक संबल बनी रहती हैं|
जाने किन-किन पलों में उनके बारे में लिखता चला गया| कई दिन.. कई माह गुजरे और अब न जाने क्यूं लगता है कि मैंने बाबूजी पर जो लिखा वह मेरी निजी डायरी का हिस्सा भर नहीं होना चाहिए|
मेरे अंतस की गहराईयों से दुआ उनके लिए जिनके "बाबूजी" हैं, वे उनको संभालें, बरगद की छाँव नसीब से मिलती है|
गिरीशजी का शेर है-
''जब बुजुर्गों की दुआएं साथ रहती हैं
यूं लगे शीतल हवाएं साथ रहती हैं''
-------------------------------------------
**************
-------------------------------------------
जीवन जब से शुरू हुआ है तभी से संघर्ष उसके साथ जुड़ा हुआ है|
हरेक जीव अपने जीने के लिए संघर्ष करता है|
जीवन में आने का संघर्ष, जीवन को बचाने और अपने मुताबिक़ पूर्णत्व को पाने के साथ ही समाप्त होता है|
कुछ लोग जीवन के संघर्ष से दुखी हो कर तमाम उम्र रुआंसे रह जाते हैं तो कुछ अपने जीवन के संघर्ष में तप कर सोने के कुंदन हो जाने की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं और उनका जीवन एक मिसाल बन जाता है-दूसरों के लिए|
लगन और मेहनत से वे जीवन में ही बहुत कुछ हासिल कर लेते हैं|
सोन महाराज का जीवन भी कुछ ऐसा ही था| माँ-पिता के इकलौते पुत्र| लाड-प्यार में पले-बढे| राजस्थान के जिला जोधपुर-फलोदी-लोहावट में जन्मे मगर तकदीर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा ले आई|
तब पश्चिमी उड़ीसा का एक बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ अर्थात दक्षिण कोसल का ही एक अंग था|
सोन महाराज उनका प्रचलित नाम था-पूरा नाम था सोहनलालजी शर्मा| घर के लोग सोनू कहते|
बड़े घरानों में मुनीम ब्राह्मण को महाराज कह कर बुलाया जाता है लिहाजा वे सोन महाराज के नाम से ही जाने गए|
बचपन से कुशाग्र बुद्धि थे और सहनशीलता,परोपकार,त्यागवृत्ति और सबसे दुर्लभ मानवीय गुण मैत्री समभाव उनके स्वभाव के आभूषण रहे| अपने इन्ही गुणों की बदौलत वे जहां भी रहे उन्होंने सम्मान हासिल किया और सर्वात्मीय बने रहे|
सोन महाराज के पिता अचलदासजी अपने जमाने के दबंग शिक्षक थे और राजस्थान में उनके पढाए हुए छात्र मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पंहुचे.. लेकिन शायद दीपक तले ही अन्धेरा रहता है|
पढने-लिखने में कुशल रहने के बावजूद परिस्थितियों ने ऐसा घेरा कि सोन महाराज कालेज की पढाई भी पूरी नहीं कर सके और विभाजन के दिनों में जब पूरे देश में उथल-पुथल थी, पूरा परिवार भीषण दुर्भिक्ष की चपेट में आ कर पलायन के लिए विवश हो गया|
सोन महाराज का पूरा कुनबा राजस्थान से रायपुर आ गया| घर पर कुल चार प्राणी| छोटी बहन नरबा और माता बलजीबाई| रायपुर आने के बाद अचलदासजी का कार्यक्षेत्र बदल गया| उनके भाई रिखबदासजी रायपुर की अनेक व्यापारिक फर्मों में मुनीम थे लिहाजा अपने भाई अचलदासजी का उन्होंने इसी लाईन में पुनर्वास करा दिया| शिक्षा क्षेत्र की पटरी से उखड़ कर अचलदासजी काम तो करते रहे मगर जम नहीं पाए| नतीजा यह हुआ कि सोन महाराज पर समय से पहले परिवार की जिम्मेदारी आ गयी|
विस्थापन के उस दौर में सोन महाराज बमुश्किल 10 बरस के रहे होंगे | रायपुर के हिन्दू हाई स्कूल में दाखिल जरूर हुए मगर कालेज तक नहीं पहुँच पाए|
.................(जारी)...........................
9 comments:
अच्छा संस्मरण शुरू किया है ..जारी रखिये.
रमेश भाई, आदरणीय बाबूजी के संबंध में पढ़ना अच्छा लग रहा है जारी रखें.
उन्हें मेरा प्रणाम.
पिता का साया एक मजबूत छत्र की तरह सुरक्षा प्रदान करता है। उन्हे हमेशा याद रखना चाहिए।
पोखरण-फ़लोदी-लोहावट तक मैं पहुंच चुका हूं। मैने उस इलाके को अच्छे से देखा है।
आभार
एकदम सही लिखा आपने- 'जीवन जब से शुरू हुआ है,संघर्ष तभी से उसके साथ जुडा हुआ है' पुराने लोग घर-परिवार को स्थापित करने के लिए कितना त्याग और संघर्ष करते थे वह भी कितने धैर्य और साहस के साथ ,शायद हमारी आज की पीढ़ी को उसका एक प्रतिशत भी एहसास नहीं होता . मुझे लगता है कि आपका यह धारावाहिक हमें अपने पूर्वजों के कठिन परिश्रम और संघर्षों की याद दिला कर बहुत कुछ सीखने की प्रेरणा देगा. अपने पूज्य पिताश्री की पावन स्मृति में एक सार्थक और अच्छी शुरुआत की है आपने . बहुत-बहुत शुभकामनाएं.
.प्रिय रमेश ,
जब भी यादों के दरीचे खुलते हैं अतीत की यादों में स्मृतियों का अक्षय पात्र अविरल बहती धाराओं का गहराई से एहसास कराता है.ह़र किसी बच्चे के लिए उसके माता- पिता कल्प वृक्ष कि तरह होते है. अपना अभीष्ट मिलना , न मिलना या देर से मिलना खुद की कर्तृत्व क्षमता , भाग्य, प्रारब्ध आदि का मिला-जुला खेला होता है. यीर भी कभी कभी हम अनायास बुजुर्गों को कोसनेकी भूल कर बैठते है.
बच्चा रमेश उस वक्त क्या सोचता था , आज परिपक्व होने के बाद क्या सोच रहा है इस फर्क को तुम कितनी अच्छी तरह से समझ गए हो यह तुम्हारी लेखनी की गंभीरता से ही पारदर्शी हो जाता है.यादों में बाबूजी -पढना बड़ा अच्छा लग रहा है. रमेश ,तुमने रुडयार्ड किपलिंग की कविता "IF " पढ़ी होगी. उनहोंने और हर किसी बच्चे के पिता यही सोचा होगा.शायद तुम्हारी यादें पढ़कर और भी कई लोग अपने पिता की स्मृतियों का अक्षराभिशेक कर्रेंगे.जीवन संघर्ष था ... है और हमेशा ही रहेगा. लिखते रहो.....
व्यक्ति के साथ पूरा समय और इतिहास भी गतिमान होता है.
जीवन जब से शुरू हुआ है तभी से संघर्ष उसके साथ जुड़ा हुआ है|
हरेक जीव अपने जीने के लिए संघर्ष करता है|
....अच्छा संस्मरण ......आभार
पिता का साया एक मजबूत छत्र की तरह सुरक्षा प्रदान करता है। उन्हे हमेशा याद रखना चाहिए| आभार|
पिता हमारे लिए बरगद के पेड़ से कम नहीं होते.उनकी छाँव के नीचे हम ज़िंदगी की धूप को भी सह लेते है. पिता साथ रहते है तो अपने छोटे होने का अहसास बना रहता है.वरना आदमी टुच्चापन दिखाता है कि वह बड़ा है. कलेक्टर-फलेक्टर या पता नहीं क्या-क्या है . पिता जब डांटते है तो लगता है, अरे, हम अभी छोटे ही है. हमतो अपने को तोपचंद समझ रहे थे. तुम्हारे पिताजी से मैंने सैकड़ो बार मुलाकाते की .मुझे भी उनका भरपूर स्नेह मिला. उनका अचानक चला जाना आज तक अखरता है. उनमे जो देशजपन था, वह आकर्षित करता था. सादगी, सरलता, सहजता का घोल बनाकर जो (सोहन हलवा-सा)व्यक्तित्व बनता था, उसे तुम्हारे बाबू जी का नाम दिया जा सकता है. यह संस्मरण-धारावाहिक तुम्हारे जीवन का सबसे श्रेष्ठ लेखन कहा जासकता है.
एक टिप्पणी भेजें