यादों में बाबूजी(2)
बुधवार, 26 जनवरी 2011
सदर बाजार के एक किराए के घर में गुजर-बसर थी| सदर के सेठ हीरालालजी "घी वाले" ने वर को होनहार पाया और किशोरावस्था की शुरुआत में ही सोन महाराज श्रीमती कमलादेवी शर्मा से ब्याह दिए गए| फिर जैसा कि आम घरों में होता है-गृहस्थी की अडचनें, आगे बढ़ने की ललक और गृहस्थाश्रम के लक्ष्यों को पाने की कोशिश में सोन महाराज ने कई छोटे -बड़े कामों को साधने की कोशिश की| कुछ दिनों तक आरंग के समीप ग्राम डोमा में भी रहे मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था|
उन दिनों पश्चिमी उडीसा में कई मारवाड़ी सेठ अपना कारोबार जमा चुके थे| जहां कारोबार होता है वहाँ मुनीम जरूर होता है| सेठ अनराजजी को भी ग्राम दलदली-नुआपाड़ा- उड़ीसा में भरोसे के मुनीम की जरूरत थी| सोन महाराज को अपने दादाजी श्रीमान रामनारायणजी के मार्फ़त सन्देश मिला | सोन महाराज रहते तो शहर में जरूर थे मगर उनका मन गाँव डोमा में रम गया था| उनने हामी भर दी| तकदीर उनके लिए एक नया और स्थायी मुकाम तय करने वाली थी| वे अपनी छोटी सी गृहस्थी ले कर दलदली आ गए| गांव नया था मगर सोन महाराज ने यहाँ काम मुस्तैदी से किया| कुछ साल सेठजी की मन लगा कर सेवा की लेकिन अगर वे सेठाश्रय में उम्रभर रह जाते तो शायद वो मुकाम हासिल नहीं कर पाते जो उनने हासिल किया|
सोन महाराज की पहली संतान पुत्री हुई- आशा| छः सात महीने की आशा को लेकर छोटा सा परिवार दलदली आ गया| फिर परिवार जब बढ़ने लगा तो बड़े स्थान की जरूरत हुई| सेठजी के बाड़े में छोटी सी जगह में गुजारा नहीं हो सका | सेठों से उलझनें कैसे पनपी इसका भी एक प्रसंग है|
उस जमाने में सरकारी हुक्म था कि जो भी व्यक्ति जितनी जगह घेर कर सहेजेगा वो जगह उसे दी जाएगी| मुख्य मार्ग की एक जगह सोन महाराज ने विकसित करनी शुरू कर दी तो छोटे सेठ ने आपत्ति दर्ज करा दी| सीमित आमदनी , कई दबाव| पराधीन सपनेहु सुख नाहीं| सोन महाराज आत्म निर्भर होना चाहते थे| आखिरकार नौकरी छोड़ दी| उस जमाने में अधिकारी सहृदय हुआ करते थे| उनने देखा कि शहर का एक युवक घोर पिछड़े इलाके में बसना चाहता है और गाँव के प्रति उसके मन में गहरा अनुराग है लिहाजा मौके पर ही अफसर ने जमीन कुछ शुल्क ले कर सोन महाराज के नाम हस्तांतरित कर दी| छोटा सेठ हाथ मलते रह गए मगर बदले हुए दौर में बड़े सेठजी और उनके परिवार ने हमेशा आत्मीयता कायम रखी| 2 .89 एकड़ के एक विशाल भू -भाग में मकान बना| सोन महाराज बाजार -हाट का काम करने लगे|समय ने ऐसे रफ़्तार पकड़ी कि दस संतानों वाले कुटुंब(आशा,प्रेम,संतोष,हेम,हरीश,रमेश,मोनिका,राजेश,सीमा और चिंटू) में खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे और दूध-दही की कोई कमी नहीं रही| आमदनी के कई स्रोत खुले| हर संतान अपना भाग्य ले कर आयी| वह दौर परिवार का स्वर्ण काल था| एक खुशनुमा पल था जो बिखरना तय था| सोन महाराज ने अथक मेहनत करके कुछ संपत्ति जुटा ली तो ईर्ष्यालु लोग पीछे पड़ गए|
एक रात जब सोन महाराज और परिवार के लोग गाँव के बाहर थे, चोरों ने सेंध लगा लगा दी| पूरी कमाई लुट गयी| इस घटना ने सोन महाराज को इतना खिन्न और हताश कर दिया कि उसी पल उनने निर्णय ले लिया कि अब गाँव में नहीं रहना| निकटवर्ती कसबे खरियार रोड में जा बसने का इरादा कर लिया| दरअसल इसके पीछे एक वजह और थी| वे चाहते थे कि पढाई का जो धन उनको हासिल नहीं हो सका वे उसे अपनी संतानों को जरूर दिलाएं| पढो और बढ़ो- यह वे हमेशा कहते थे| खरियार रोड में बाकायदा मकान खरीदा गया और गृहस्थी एक बार फिर नए सांचे में ढलने लगी| उस खिन्न दौर में गाँव की जमीन का सौदा भी आनन -फानन में कर दिया गया| पेशगी की रकम मिल गयी मगर होई है वही जो राम रची राखा.. खरीदार पूरे पैसे नही चुका पाया|
बच्चे बड़े हो रहे थे| अब फिर फैसले की घड़ी थी| कसबे में रहें या गाँव में रहें? गाँव ज्यादा अनुकूल था| वहाँ सुकून था, नैसर्गिक सहूलियतें थी| सीधे सच्चे सोन महाराज ने डंडी मरना सीखा नहीं लिहाजा दुकानदारी भी नहीं जमा सके| शहरी सभ्यता के तौर-तरीके भी उनको नापसंद थे| मैं भला, मेरी खेती भली| यह उनकी सोच थी| मेहनत करो, फसल उपजाओ -इसके वे पक्षधर थे| उनने एक बार फिर से पक्के तौर पर गाँव में ही जा बसने का इरादा कर लिया और चोरी ने शायद यह सिखा दिया कि सादगी से रहो, जैसा देश वैसा भेस|एक रात| उनने अपने सभी बच्चों को अपने साथ बिठाया | कंदील और दीपक की रोशनी थी| बच्चों से पूछा- मैं गांव जा रहा हूँ, तुम लोगों को को पढ़ना है तो शहर जाना होगा या फिर मेरे साथ गाँव चलो|बच्चों को पढ़ना था| आम सहमति शहर पर बनी| जिन्दगी ने अब एक नई करवट ली| खरियार रोड पिछड़ा कस्बा था| उच्च शिक्षा के साधन नगण्य थे| बच्चे अपने दादा और नाना के परिवारजनो के पास रायपुर आ गए| तब रायपुर एक जिला हुआ करता था| शांत और रहमदिल लोगों का धड़कता हुआ शहर | छत्तीसगढ़ राज्य बनने की कल्पना भी नहीं थी| अब तक मित्रों आप जान ही चुके कि सोन महाराज ही मेरे बाबूजी थे| (जारी ...)
उन दिनों पश्चिमी उडीसा में कई मारवाड़ी सेठ अपना कारोबार जमा चुके थे| जहां कारोबार होता है वहाँ मुनीम जरूर होता है| सेठ अनराजजी को भी ग्राम दलदली-नुआपाड़ा- उड़ीसा में भरोसे के मुनीम की जरूरत थी| सोन महाराज को अपने दादाजी श्रीमान रामनारायणजी के मार्फ़त सन्देश मिला | सोन महाराज रहते तो शहर में जरूर थे मगर उनका मन गाँव डोमा में रम गया था| उनने हामी भर दी| तकदीर उनके लिए एक नया और स्थायी मुकाम तय करने वाली थी| वे अपनी छोटी सी गृहस्थी ले कर दलदली आ गए| गांव नया था मगर सोन महाराज ने यहाँ काम मुस्तैदी से किया| कुछ साल सेठजी की मन लगा कर सेवा की लेकिन अगर वे सेठाश्रय में उम्रभर रह जाते तो शायद वो मुकाम हासिल नहीं कर पाते जो उनने हासिल किया|
सोन महाराज की पहली संतान पुत्री हुई- आशा| छः सात महीने की आशा को लेकर छोटा सा परिवार दलदली आ गया| फिर परिवार जब बढ़ने लगा तो बड़े स्थान की जरूरत हुई| सेठजी के बाड़े में छोटी सी जगह में गुजारा नहीं हो सका | सेठों से उलझनें कैसे पनपी इसका भी एक प्रसंग है|
उस जमाने में सरकारी हुक्म था कि जो भी व्यक्ति जितनी जगह घेर कर सहेजेगा वो जगह उसे दी जाएगी| मुख्य मार्ग की एक जगह सोन महाराज ने विकसित करनी शुरू कर दी तो छोटे सेठ ने आपत्ति दर्ज करा दी| सीमित आमदनी , कई दबाव| पराधीन सपनेहु सुख नाहीं| सोन महाराज आत्म निर्भर होना चाहते थे| आखिरकार नौकरी छोड़ दी| उस जमाने में अधिकारी सहृदय हुआ करते थे| उनने देखा कि शहर का एक युवक घोर पिछड़े इलाके में बसना चाहता है और गाँव के प्रति उसके मन में गहरा अनुराग है लिहाजा मौके पर ही अफसर ने जमीन कुछ शुल्क ले कर सोन महाराज के नाम हस्तांतरित कर दी| छोटा सेठ हाथ मलते रह गए मगर बदले हुए दौर में बड़े सेठजी और उनके परिवार ने हमेशा आत्मीयता कायम रखी| 2 .89 एकड़ के एक विशाल भू -भाग में मकान बना| सोन महाराज बाजार -हाट का काम करने लगे|समय ने ऐसे रफ़्तार पकड़ी कि दस संतानों वाले कुटुंब(आशा,प्रेम,संतोष,हेम,हरीश,रमेश,मोनिका,राजेश,सीमा और चिंटू) में खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे और दूध-दही की कोई कमी नहीं रही| आमदनी के कई स्रोत खुले| हर संतान अपना भाग्य ले कर आयी| वह दौर परिवार का स्वर्ण काल था| एक खुशनुमा पल था जो बिखरना तय था| सोन महाराज ने अथक मेहनत करके कुछ संपत्ति जुटा ली तो ईर्ष्यालु लोग पीछे पड़ गए|
एक रात जब सोन महाराज और परिवार के लोग गाँव के बाहर थे, चोरों ने सेंध लगा लगा दी| पूरी कमाई लुट गयी| इस घटना ने सोन महाराज को इतना खिन्न और हताश कर दिया कि उसी पल उनने निर्णय ले लिया कि अब गाँव में नहीं रहना| निकटवर्ती कसबे खरियार रोड में जा बसने का इरादा कर लिया| दरअसल इसके पीछे एक वजह और थी| वे चाहते थे कि पढाई का जो धन उनको हासिल नहीं हो सका वे उसे अपनी संतानों को जरूर दिलाएं| पढो और बढ़ो- यह वे हमेशा कहते थे| खरियार रोड में बाकायदा मकान खरीदा गया और गृहस्थी एक बार फिर नए सांचे में ढलने लगी| उस खिन्न दौर में गाँव की जमीन का सौदा भी आनन -फानन में कर दिया गया| पेशगी की रकम मिल गयी मगर होई है वही जो राम रची राखा.. खरीदार पूरे पैसे नही चुका पाया|
बच्चे बड़े हो रहे थे| अब फिर फैसले की घड़ी थी| कसबे में रहें या गाँव में रहें? गाँव ज्यादा अनुकूल था| वहाँ सुकून था, नैसर्गिक सहूलियतें थी| सीधे सच्चे सोन महाराज ने डंडी मरना सीखा नहीं लिहाजा दुकानदारी भी नहीं जमा सके| शहरी सभ्यता के तौर-तरीके भी उनको नापसंद थे| मैं भला, मेरी खेती भली| यह उनकी सोच थी| मेहनत करो, फसल उपजाओ -इसके वे पक्षधर थे| उनने एक बार फिर से पक्के तौर पर गाँव में ही जा बसने का इरादा कर लिया और चोरी ने शायद यह सिखा दिया कि सादगी से रहो, जैसा देश वैसा भेस|एक रात| उनने अपने सभी बच्चों को अपने साथ बिठाया | कंदील और दीपक की रोशनी थी| बच्चों से पूछा- मैं गांव जा रहा हूँ, तुम लोगों को को पढ़ना है तो शहर जाना होगा या फिर मेरे साथ गाँव चलो|बच्चों को पढ़ना था| आम सहमति शहर पर बनी| जिन्दगी ने अब एक नई करवट ली| खरियार रोड पिछड़ा कस्बा था| उच्च शिक्षा के साधन नगण्य थे| बच्चे अपने दादा और नाना के परिवारजनो के पास रायपुर आ गए| तब रायपुर एक जिला हुआ करता था| शांत और रहमदिल लोगों का धड़कता हुआ शहर | छत्तीसगढ़ राज्य बनने की कल्पना भी नहीं थी| अब तक मित्रों आप जान ही चुके कि सोन महाराज ही मेरे बाबूजी थे| (जारी ...)
3 comments:
बहुत सही लिखा आपने -'तब रायपुर एक जिला हुआ करता था . शांत और रहमदिल लोगों का धडकता हुआ शहर' लेकिन अब ?
बाबू जी को शत शत नमन ...बहुत सार गर्भित तरीके से प्रकाश डाला है आपने ...
achi hai, pariwar ki ager purani photos ho to upload karna......gulab
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