यादों में बाबूजी (3 )

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

शिक्षा के प्रति उनका आग्रह इतना प्रबल था कि गाँव में उन्होंने 1970 के दशक में एक स्कूल खुलवाया, लोग आकर रुक भी जाएं इसके लिए स्कूल के पास कुआं सबके सहयोग से खुदवाया गया | बेहतर शिक्षा के लिए बच्चों को सदैव प्रेरित करते रहे| उस दौर का कालाहांडी| वेतालकथा वाली रूढ़ियों और आदिम युगीन सभ्यता के दकियानूस रिवाजों से जकड़ा हुआ |

औसत ग्रामीण की सोच थी कि मेरा लड़का पढने जाएगा तो खेत में काम कौन करेगा| अजीब सोच थी कि पढ़ना-लिखना "लरिया" (हिन्दी भाषी )लोगों का काम है या फिर कटकिया (कटक-उड़ीसा) कुलीन लोग ही पढ़ लिख सकते हैं| बाबूजी ने इस सोच को धीरे-धीरे बदलने की ठानी| गरीबी इस कदर लोगों में व्याप्त थी कि एक टाईम के भोजन के लिए लोग बच्चों को कोई न कोई काम कराना ज्यादा पसंद करते| बच्चे पढ़ें और स्कूल में ही उनको "खीरी "(मध्यान्ह भोजन ) मिले इसकी व्यवस्था की गयी और इस काम के लिए गाँव की एक दबंग और ईमानदार महिला गोरामती को जिम्मेदारी दी गयी| गाँव में उसी दौर में महिला समिति के मार्फ़त बच्चों को दूध पावडर और दीगर चीजें दी जाती| बाबूजी स्वयं आपूर्ति और विभागीय समन्वय के लिए मोर्चा सम्हाले रहते| गाँव के पढ़ाकू लड़कों को पढने के लिए अच्छी पुस्तकें दी जाती| कंदील या ढिबरी जला कर बाबूजी खुद भी पुस्तक या अखबार पढ़ते दीखते| उस जमाने में "लाईट" एक सपना थी| गाँव में अखबार आता नहीं था तो बाबूजी अखबार पढने के लिए दूरस्थ ग्राम पंचायत कुरुमपुरी जाते और घर पर रेडियो भी चलता | समाचार की एक लाइन पर पूरा गाँव घंटों चर्चा करता |
साईकिल उनके आवागमन का सुलभ साधन थी| घर पर बैल-गाड़ियां उस दौर में आवाजाही का एक मात्र साधन थी मगर बाबूजी साईकिल का ही इस्तेमाल करते | कितनी भी दूर जाना हो वे साईकिल से ही जाते| भीतर और बाहर से वे एक जैसे थे| समस्या क्या है ये मत देखो समाधान क्या है देखो- वे कहते जब हमारे आँगन में चौपाल लगती और सारे लोग कोई ना कोई समस्या ले कर आते|जय हो - बाबूजी का अभिवादन तकिया कलाम था | आज गुलजार की मेहरबानी से यह गीत दुनिया भर में गूँज रहा है| गरीब , अमीर सेठ, हमाल, किसान , मजदूर, स्त्री-पुरुष, बच्चे, बूढ़े सबके लिए वे जय हो कहते|आजकल स्कूलों में एक चीज का चलन है- रीसाईक्लिंग मैनेजमेंट| बाबूजी ने घर की पाठशाला में इस बाबत कितने प्रयोग किये यह बताना कठिन है| टूटे कप प्लेट जोड़ दिए जाते जिनमे बिल्लियाँ दूध पीती|
कुर्सी के हत्थे और पाये तार से जोड़ दिए जाते और लोहे की बाल्टी में भी जोड़ लगा कर उसे दुरुस्त करने का हुनर महराज के पास था जो आसपास के लोग सीख जाते| पुरानी इस्तेमाल की हुई बैटरियों से रेडियो चलाना वे जानते थे| पुराने कपड़ों से रालियाँ (बिस्तर) बनाने में वे माहिर थे| घर की छत पर लगी म्यार (बल्ली) टूट जाती तो उसे बीच से लोहे की पत्तियों पर कीलें ठोक कर जोड़ देते| ऐसी दुरुस्त बल्लियाँ आज भी सुरक्षित हैं| खाली समय में देसी जुगाड़ से चीजों को दुरुस्त करना उनका प्रिय शगल था| मैंने कभी उनको तनाव ग्रस्त हो कर बैठे नहीं देखा , वे फुर्सत पाते ही किसी ना किसी रिसाइक्लिंग वर्क में जुट जाते| साईकिल के टायर-ट्यूब घिस जाते तो उनमे पैबंद लग जाता था|
कोई काम छोटा नहीं होता यह वे अक्सर कहते| वे यह भी कहते कि नीचे देख कर चलो, ठोकर नहीं लगेगी| किफायत, बचत, सादगी और मितव्ययिता और मिनीमम में मैक्सिकम निर्वाह, उस पीढी में सर्वत्र था और बाबूजी तब ऐसा करते हुए एक समय हमें पिछड़े हुए लगते थे मगर आज लगता है कि दिमागों में ठुंसे हुए तथाकथित आधुनिक कचरे के कारण सोच पिछड़ जाती है और पता नहीं क्यों नई पीढी को पुरानी पीढी का काम पिछड़ा हुआ ही लगता है | आज जब मैं गाँव की बात करता हूँ तो बेटा कहता है छोडो ना पापा तब मुझे इस विचित्र पीढी प्रसंग पर हंसी आ जाती है | (जारी )

5 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा 7 फ़रवरी 2011 को 10:24 pm बजे  

पुर्वजों का अनुभव भावी पीढी के काम आता है।
अगर वह समझे तब।

संस्मरण जारी रहे।

आभार

shikha varshney 8 फ़रवरी 2011 को 12:57 am बजे  

बहुत ही ज्ञानपरक संस्मरण चल रहा है ..बहुत सुन्दर.

Swarajya karun 8 फ़रवरी 2011 को 9:13 am बजे  

जीवन-संघर्ष के साथ समाज-सेवा की भावना . घर की गैर-ज़रूरी समझी जाने वाली चीजों को भी उपयोगी बना देने का हुनर . वास्तव में बहुआयामी व्यक्तित्व था उनका. अदभुत जीवटता थी आपके बाबूजी में .आज की पीढ़ी भी उनके बारे में जानकर बहुत कुछ सीख सकती है . उनकी यादों को नमन .बहुत प्रेरक बन रहा है यह धारावाहिक .

shama 15 फ़रवरी 2011 को 9:19 am बजे  

Bahut badhiya sansmaran likh rahe hain aap! Mai pahlee baar aayi hun aapke blog pe.
Mere "sansmaran" blog pe ( Arthi to uthi)par aapne jo comment kiya,uske jawab me: Sahee hai.Sirf lekhan nahee, jan jagruti kee zaroorat hai. Bachhee kee parwarish me mera apna yogdaan raha hai. Ye baat alag,ki us ladkee ko kayi zulm sahne pade.

रमेश शर्मा 15 फ़रवरी 2011 को 8:50 pm बजे  

शमाजी के लिए
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कल जब मैं आपका कमेन्ट पढ़ रहा था तब संयोग देखिये विविध भारती पर एक पुराना गीत बज रहा था -ना ज़ुल्म ना ज़ालिम का अधिकार रहेगा ...दुनिया में सिर्फ प्यार ही प्यार रहेगा | आशा करें कि यह पंक्तियाँ सच हों ....

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