लाल लड़ाकों का इमोशनल अत्याचार
मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011
बस्तर में अपहरण और रिहाई की का एक और एपिसोड देखने को मिला है जिसमे अंत तो सुखांत ही रहा है| नक्सलियों के चंगुल से छूट कर रिहा हुए जवान और उनके परिजन राहत की साँसें ले रहे हैं , मीडिया को भरपूर खबर मिली है|स्वामी अग्निवेश ने कहा कि हम एक बड़ी चुनौती, बड़ी समस्या का हल ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी इस कोशिश में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने सकारात्मक रूचि दिखाते हुए पहल की है। रिहाई के बाद जो बातें सामने आई हैं उससे हम कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार ने एक सकारात्मक पहल की है।
जानकारों की राय में इस एपिसोड में एक बात खुल कर स्थापित हुई है कि पिछले दो वर्षों से बस्तर में तथाकथित आपरेशन ग्रीन हंट चलाने के नाम पर जो 700 करोड़ रूपये फूंके गए हैं- नक्सली लड़ाकों ने उस पर पूरी तरह पानी फेर दिया है और अब वे शुद्ध रूप से इमोशनल अत्याचार पर उतर आए हैं| मीडिया का चस्का लग चुका है| यह चस्का नेताओं को भी लगा रहा है|बस्तर के कई गांवों में पीने के पानी के नल नहीं है लेकिन बस्तर के नक्सली कमांडर मीडिया को रिकार्डेड बयानों की सी डी भेजते हैं|
इस तरह के छत्तीसगढ़ के कुल तीन और बेगुसराय बिहार के पुलिस अपहरण काण्ड की रोशनी में देखें तो साफ़ है कि गुरिल्ला वार का नया मन्त्र है- जवानो को उठाओ और सरकार की उठक-बैठक कराओ| इस पर भी तुर्रा यह कि दिक्कत सरकार से है , मांगें भी सरकार मानेगी मगर सरकार के किसी नेता या अफसर से बात नहीं करेंगे| ऐसा अपहरण छत्तीसगढ़ में वे पिछले छह महीनों मे दो बार कर चुके हैं और ताजा घटनाक्रम में पांच पुलिसकर्मी पिछले 18 दिनों तक उनके चंगुल में बंधक रहे हैं|
अपहृत जवान अबूझमाड़/बस्तर इलाके में रखे गए थे मगर इस इलाके में झाँकने तक की किसी की हिम्मत नहीं रही है क्योंकि इलाका पूरी तरह से जंगली और पहाडी है| दिन में भी यहाँ सूरज की रोशनी जमीन पर बमुश्किल पहुचती है|
नारायणपुर के गवाड़ी गर्दा गांव के जंगल से आठ नवंबर को दो जवानों का अपहरण कर लिया गया था| हफ्ते भर तक पुलिस खोज में लगी रही और मीडिया के लोग जंगल में नक्सलियों के चंगुल में फंसे जवानों से जा कर मिल आए| इससे पूर्व सितम्बर में सात जवानों का अपहरण करने के बाद नक्सलियों ने तीन जवानों की ह्त्या कर दी थी और शेष चार जवानों को 12 दिनों तक बंधक बनाने के बाद 1 अक्टूबर को रिहा कर दिया था| यह रिहाई मीडिया और सामाजिक संगठनों की पहल पर की गयी थी| नक्सलियों के केशकाल दलम के कमांडर रमेश ने मीडिया में दावा किया था कि वे जवानों को छोड़ देंगे बशर्तें उत्तर बस्तर के उन सभी ग्रामीणों को छोड़ दिया जाए जिनको नक्सली होने के शक में गिरफ्तार किया गया है| हालाकि मीडिया और लोगों के दबाव में सभी रिहा कर दिए गए|
ताजा हालात में देखें तो नक्सलियों की रणनीति लगता है अब सीधे वार करने की बजाय दबाव बना कर मांगें मनवाने की है और उनके निशाने पर हर बार पुलिस वाले ही होते हैं जिनको बस से बगैर सुरक्षा सफ़र की मनाही है| इस बार भी पुलिसकर्मी बस में निहत्थे सवार थे और आसानी से नक्सली उनको बंधक बना कर ले गए| अपहरण करो और एहसान दिखा कर रिहा करो यह नक्सलियों की नई रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है| नक्सलियों की इस नीति का फिलहाल कोई तोड़ नजर नहीं आता क्योंकि बंधक उनके कब्जे में महफूज रहते हैं उनके रहमोकरम पर और कोई उनका किला भेद नहीं पाता हैं और वे कहाँ हैं इसे लेकर सिर्फ कयास भर लगते रहते हैं| वे जिस इलाके में काबिज हैं वह चार हजार वर्ग किलोमीटर में फैला अबूझमाड जंगली इलाका है जहां नंग-धडंग आदिम सभ्यता आज भी ज़िंदा है और यह भी सच है कि पिछले दो वर्षों के सतत काम्बिंग अभियान के बावजूद नक्सली इलाके में महफूज हैं|
for detail news visit samaylive.com hindi/chattisgarh
जानकारों की राय में इस एपिसोड में एक बात खुल कर स्थापित हुई है कि पिछले दो वर्षों से बस्तर में तथाकथित आपरेशन ग्रीन हंट चलाने के नाम पर जो 700 करोड़ रूपये फूंके गए हैं- नक्सली लड़ाकों ने उस पर पूरी तरह पानी फेर दिया है और अब वे शुद्ध रूप से इमोशनल अत्याचार पर उतर आए हैं| मीडिया का चस्का लग चुका है| यह चस्का नेताओं को भी लगा रहा है|बस्तर के कई गांवों में पीने के पानी के नल नहीं है लेकिन बस्तर के नक्सली कमांडर मीडिया को रिकार्डेड बयानों की सी डी भेजते हैं|
इस तरह के छत्तीसगढ़ के कुल तीन और बेगुसराय बिहार के पुलिस अपहरण काण्ड की रोशनी में देखें तो साफ़ है कि गुरिल्ला वार का नया मन्त्र है- जवानो को उठाओ और सरकार की उठक-बैठक कराओ| इस पर भी तुर्रा यह कि दिक्कत सरकार से है , मांगें भी सरकार मानेगी मगर सरकार के किसी नेता या अफसर से बात नहीं करेंगे| ऐसा अपहरण छत्तीसगढ़ में वे पिछले छह महीनों मे दो बार कर चुके हैं और ताजा घटनाक्रम में पांच पुलिसकर्मी पिछले 18 दिनों तक उनके चंगुल में बंधक रहे हैं|
अपहृत जवान अबूझमाड़/बस्तर इलाके में रखे गए थे मगर इस इलाके में झाँकने तक की किसी की हिम्मत नहीं रही है क्योंकि इलाका पूरी तरह से जंगली और पहाडी है| दिन में भी यहाँ सूरज की रोशनी जमीन पर बमुश्किल पहुचती है|
नारायणपुर के गवाड़ी गर्दा गांव के जंगल से आठ नवंबर को दो जवानों का अपहरण कर लिया गया था| हफ्ते भर तक पुलिस खोज में लगी रही और मीडिया के लोग जंगल में नक्सलियों के चंगुल में फंसे जवानों से जा कर मिल आए| इससे पूर्व सितम्बर में सात जवानों का अपहरण करने के बाद नक्सलियों ने तीन जवानों की ह्त्या कर दी थी और शेष चार जवानों को 12 दिनों तक बंधक बनाने के बाद 1 अक्टूबर को रिहा कर दिया था| यह रिहाई मीडिया और सामाजिक संगठनों की पहल पर की गयी थी| नक्सलियों के केशकाल दलम के कमांडर रमेश ने मीडिया में दावा किया था कि वे जवानों को छोड़ देंगे बशर्तें उत्तर बस्तर के उन सभी ग्रामीणों को छोड़ दिया जाए जिनको नक्सली होने के शक में गिरफ्तार किया गया है| हालाकि मीडिया और लोगों के दबाव में सभी रिहा कर दिए गए|
ताजा हालात में देखें तो नक्सलियों की रणनीति लगता है अब सीधे वार करने की बजाय दबाव बना कर मांगें मनवाने की है और उनके निशाने पर हर बार पुलिस वाले ही होते हैं जिनको बस से बगैर सुरक्षा सफ़र की मनाही है| इस बार भी पुलिसकर्मी बस में निहत्थे सवार थे और आसानी से नक्सली उनको बंधक बना कर ले गए| अपहरण करो और एहसान दिखा कर रिहा करो यह नक्सलियों की नई रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है| नक्सलियों की इस नीति का फिलहाल कोई तोड़ नजर नहीं आता क्योंकि बंधक उनके कब्जे में महफूज रहते हैं उनके रहमोकरम पर और कोई उनका किला भेद नहीं पाता हैं और वे कहाँ हैं इसे लेकर सिर्फ कयास भर लगते रहते हैं| वे जिस इलाके में काबिज हैं वह चार हजार वर्ग किलोमीटर में फैला अबूझमाड जंगली इलाका है जहां नंग-धडंग आदिम सभ्यता आज भी ज़िंदा है और यह भी सच है कि पिछले दो वर्षों के सतत काम्बिंग अभियान के बावजूद नक्सली इलाके में महफूज हैं|
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2 comments:
अच्छा आलेख। रमेश जी आपने सही कहा, आपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर सात सौ करोड रूपए फूंके गए।
ताजा हालात की बात करें तो नक्सल इलाकों में अब भी नक्सलियों की ही सरकार चलती है। नक्सली जिसे मारना चाहते हैं मार देते हैं। पुलिस और सुरक्षा बल कुछ नहीं कर पाते।
अभी कुछ दिन पहले का एक किस्सा बताता हूं। राजनांदगांव जिले के मानपुर क्षेत्र के रेतेगांव में वहां की महिला सरपंच के पति की नक्सलियों व्दारा हत्या कर दिए जाने की खबर जंगल से आई। खबर को कन्फर्म करने के लिए जब पुलिस के अफसरों को फोन लगाया तो उनका जवाब चौंकाने वाला था। पुलिस अफसरों ने कहा, खबर पुष्ट नहीं है, लेकिन पिछले सप्ताह भर पहले से उन्हें ऐसा अंदेशा था कि नक्सली इस व्यक्ति को मार सकते हैं, क्योंकि यह गांव में सक्रिय था और पुलिस कैम्प आदि के निर्माण में पुलिस की मदद कर रहा था।
अब सोचिए, पुलिस को मालूम था नक्सली इसकी हत्या कर सकते हैं लेकिन उसकी सुरक्षा नहीं की गई और आखिर उसकी हत्या हो की गई।
एक और किस्सा है कुछ समय पुराना है। मानपुर क्षेत्र के ही मदनवाडा में पुलिस और आईटीबीपी का कैम्प है। यह कैम्प्ा इस क्षेत्र में दो साल पहले एसपी और 30 जवानों की नक्सल हत्या के बाद खोला गया। अभेद किला है। तगडी सुरक्षा व्यवस्था है लेकिन नक्सलियों ने मदनवाडा के सरपंच की हत्या कर दी। और पुलिस...। पुलिस की हिम्मत नहीं पडी कि सरपंच की लाश को मानुपर ले आती। ग्रामीणों ने लाश को बैलगाडी में लादकर, बैलों की जगह खुद जुतकर लाश मानपुर पहुंचाया तब जाकर पंचनामा हो पाया।
बहरहाल, अच्छे और गंभीर विषय पर आपने लिखा। बधाई हो आपको।
@अतुल
दरअसल हमारे समाज में पुलिस की छबि रोबिन हुड जैसी बन गयी है| आम उठाईगीरों के सन्दर्भ में तो यह एक हद तक ठीक भी है मगर एक तरफ आर्मी ट्रेंड गुरिल्ले हों और दूसरी तरफ पुलिस लाइन में हाँफते-दौड़ते ट्रेनिंग पूरी करके मोर्चे पर आ डटे जवान हों तो पलड़ा किसका भारी होगा सहज समझा जा सकता है| उनको एक गोली भी चलानी हो तो हिसाब रखना होता है| उनको भी छुट्टी की दरकार होती है | किसी ने देखा हो - कैसे अपहृत जवानों के परिजन आँखों में आंसू लिए अबूझमाड़ में एकतरफा मानवाधिकार की उलटबांसी को बूझने की कोशिश में नींद उडाए भटक रहे थे| कोई भी समझदार शख्स यही कहेगा कि यह इमोशनल अत्याचार बंद होना चाहिए और दोनों और से बातचीत के लिए माहौल बनना चाहिए| स्वामी अग्निवेश ने एक पहल तो की,... वह मुकाम तक पहुचे इसकी आशा की जानी चाहिए|
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