और नहीं बस और नहीं

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

बीते रविवार को अवसर था ताज महोत्सव में आगरा में संपन्न सूरसदन में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का। सभागार खचाखच भरा था| बाकी कवि सम्मलेन जैसा ही यह कवि सम्मलेन हो जाता तो यहाँ लिखने की जरूरत नहीं पड़ती लेकिन खड़े थे एक प्यार का नगमा है..., जिंदगी की न टूटे लड़ी..., पुरवा सुहानी आई रे... और नहीं बस और नहीं गम के प्याले और नहीं जैसे कालजयी गीतों के रचयिता कवि गीतकार संतोषानंद के साथ जो बदसलूकी आयोजकों ने की वह बेहद शर्मनाक तरीके से सरेआम हुई । जो रिपोर्टें हैं उनके मुताबिक़ कंपकंपाते पैरों और लड़खड़ाती जबान से 72 वर्ष की उम्र में यह गीतकार जब गीतों को सुर देने की कोशिश कर रहे थे तब उनको बैठ जाने के लिए कह दिया गया| इतना ही नहीं उनसे माईक छीन लिया गया| उनको हूट कर के बैठ जाने के लिए विवश कर दिया गया| खबर यह भी है कि संचालक महोदय शुरू से ही उनको ले कर टिप्पणियाँ कर रहे थे और ना मालूम उनको क्या सूझी उनने कविता के दौरान ही अपने माईक से दीगर सूचना देनी शुरू कर दी इस पर एतराज के बाद हंगामा भी हुआ और कवि सम्मलेन एक अखाड़े में तब्दील हो गया जिसमे डीएम औए दीगर अफसरों ने व्यवस्था संभाली |

फिर भी कवि सम्मलेन में झगडे होते रहे और शरीफ लोग एक एक करके खिसकते रहे| इसके बावजूद कवि संतोषानंद उस गीत को सुनाना चाहते थे जो उनके लिए प्यार के नगमे से बड़ा था उनने सुना ही दिया ।नज़ारे ये कहने लगे नयन से बड़ी कोई चीज नहीं|मेरे दिल ने कहा कि मेरे वतन से बड़ी कोई चीज नहीं
प्रख्यात हिन्दी कवि एवं फिल्म गीतकार संतोषानंद को वर्ष 2010 का 'मनहर ठहाका पुरस्कार' से सम्मानित हैं| 'रोटी, कपड़ा और मकान', 'क्रांति' तथा 'प्रेम रोग' जैसी चर्चित फिल्मों में अपने गीतों के लिए सुर्खियों में रहे लोकप्रिय गीतकार श्री संतोषानंद को 1975 और 1984 में 'फिल्म फेयर पुरस्कार', 'महादेवी वर्मा पुरस्कार', 'निरालाश्री पुरस्कार', 'मौलाना मोहम्मद अली जौहर अवॉर्ड', 'साहित्यश्री पुरस्कार' सातवां 'विपुलम् सहित अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
संतोषानन्‍द ने हाल में एक इंटरव्यू में कहा कि ‘अब कविता नहीं, कविता का धंधा हो रहा है। चुटकुलेबाज मजे ले रहे हैं। अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं से थाट्स चुरा कर गीत लिखे जा रहे हैं। एक दौर था जब फिल्‍मों में ‘ ऐ मालिक तेरे बंदे हम ’ जैसे गीत लिखे जाते थे, और गीतकारों को भजन लिखने वाला माना जाता था। उसे दौर में मैने भाषा को प्लेन करने का काम किया और सीधी सपाट भाषा में मौलिक थाट्स के साथ ‘ इक प्‍यार का नगमा है, मौजों की रवानी है। जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है ‘ जैसा गीत लिखा। दरअसल यह मौलिक थाट इस लिये था क्‍योंकि यह गीत मैने अपनी पत्‍नी को सामने रख लिखा था। इस गीत की एक-एक पंक्ति मेरे जीवन का भोगा हुआ सच है।"

सवाल है कि क्या पकी उम्र के कारण कोई कवि कुर्सी पर बैठ कर कविता सुनाए तो क्या उसका उपहास उड़ाया जाएगा? क्या उपहास उड़ाने वाले कभी वृद्ध नहीं होंगे? इससे भी बडा सवाल यह है कि इतने बड़े रचनाकार के साथ क्या इस तरह का सुलूक क्या उचित है? आपको नहीं सुनना था तो बुलाया ही क्यों और जब वे आ गए तो माईक छीनना कम से कम कवि सम्मलेन की तो परम्परा नहीं है, और वहाँ जो कुछ हुआ उससे यही साबित होता है कि अब अमूमन कवि सम्मलेन में भी लोग सिर्फ चुटकुले चाहते हैं और जो संचालक होते हैं उनको तो दूसरों के पोस्टर उखाड़ने का लाईसेंस मिल जाता है| यह अवमूल्यन लम्बे समय से हुआ है जिसमें दोष श्रोताओं का भी है और कवियों का भी जिनने श्रोता को भ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी है|

3 comments:

shikha varshney 22 फ़रवरी 2011 को 6:50 am बजे  

बहुत ही निंदनीय कृत्य था ये ..जब तथा कथित साहित्य प्रेमी इस तरह का व्यवहार करते हैं तो बाकियों से तो कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती.

Swarajya karun 22 फ़रवरी 2011 को 9:50 am बजे  

हिन्दी के जाने-माने कवि संतोषानंद जी के साथ कवि-सम्मेलन के मंच पर हुआ अशोभनीय व्यवहार निश्चित रूप से निंदनीय है. आपने इस मामले को ब्लॉग-जगत में उठाया और सबका ध्यान आकर्षित किया इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र हैं. इस मामले में हम सब की एकता आदरणीय संतोषानंद जी के साथ और आपके साथ है. संतोषानंद जी को उनके स्वस्थ , सुदीर्घ और यशस्वी जीवन के लिए अनेकानेक शुभकामनाएं .

girish pankaj 23 फ़रवरी 2011 को 7:11 am बजे  

संतोषानंदजी के साथ जो कुछ हुआ, वह इस क्रूरतमसमय का एक कटुसत्य है. 'निंदनीय कृत्य ही था'. सचमुच अब मंच पर चुटकुले चलते है. महाकवि तुलसिदा से लेकर नागार्जुन तक कोई भी अब आयेगा, तो भी अधिकांश श्रोता चिल्लायेगे, किसी मसखरे को बुलाओ. आयोजको ने संतोषानंद के साथ जो घटिया व्यवहार किया, वह अक्षम्य है, लेकिन दुर्भाग्य है, की अब कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं होती. तुमने इस घटना पर लिख कर यह साबित किया है की युम्हारे भीतर एक लेखा-मन बराकर है. शिखा और स्वराज की टिप्पणियाँ पढ़ कर संतोष हुआ, की कुछ लोग ही सही, अन्याय के लए उठी आवाज़ के साथ खड़े है.

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