बन गिस हमर राज अब तहूँ भुगत
सोमवार, 28 फ़रवरी 2011
अब तक तो मैं यह मानता आया हूँ कि पत्रकार को सिर्फ अपने काम से काम रखना चाहिए और छत्तीसगढ़ जैसे अल्प विकसित राज्य में पत्रकारिता करना हो तो अपनी जान सम्हाल कर भी चलना चाहिए| राज्य के दो उदीयमान पत्रकार गोली का निशाना बना दिए गए| किसने मारा अब तक पता नहीं चल पाया है और कब कौन किसको गोली मार जाएगा इसकी भी गारंटी नहीं है| थक-हार कर सरकार ने मामला सी बी आई को सौंप दिया है| ऐसा नही है कि पुलिस मामले की जांच नहीं कर सकती मगर देश भर में यह साफ़ देखा जा रहा है कि जब भी ऐसा कोई हाई -प्रोफाईल मामला होता है पुलिस वाले दबाव में घुट जाते हैं और सी बी आई की जांच सूची बढ़ जाती है वरना आज भी भारत के एक साधारण से सिपाही को पूरी शै दे दी जाए तो 24 घंटे में पता लग सकता है कि बोफोर्स में दलाली किसने खाई और टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला किसने किया और अपराधों की तो सारी सूची क्लीयर हो सकती है| सारे अपराधी थानों में उठक-बैठक करते नजर आ सकते है|
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता करना बेहद खतरनाक ही नहीं क्लेश-जनक भी हो गया है| ऐसा लगता है कि कोई सिस्टम जैसी कोई चीज विकसित ही नहीं हो पाई है |ताजा मामला छत्तीसगढ़ विधान-सभा का है| इसका बजट सत्र चल रहा है| सत्र की कवरेज के लिए पत्रकारों के पास बनाने का काम सचिवालय करता है| इसके लिए बाकायदा स्टाफ है मगर लाल फीताशाही की हद देखिए कि यह कैसे काम करती है| आठ दिन पहले एक आवेदन दिया गया जिसके मुताबिक़ कायदे से प्रवेश"पास" सत्र शुरू होने के दिन से पहले ही बन जाना चाहिए था मगर नहीं बन पाया| हमेशा की तरह कई संदेशवाहक रिमाईंडर दिए गए मगर कहा गया कि एक आवेदन और दे दीजिए| थक -हार कर वो भी दे दिया गया| सदन में बजट पेश होना था और सुबह नौ बजे तक मेरा पास नहीं बन पाया था|इसके बावजूद कि मुझे यह बताने में शर्मिंदगी महसूस हो रही है कि मैं विधानसभा की पिछली मीडिया समिति का सदस्य रहा हूँ | दिल्ली विधानसभा की मीडिया सलाहकार समिति का भी सदस्य रहा हूँ और लोक सभा की कवरेज भी छह साल की है| |
मित्रों पास तो बन चुका मगर इसके लिए सुबह-सुबह जितने फोन करने पड़े, फूं-फां करनी पडी कि उससे सचमुच कोफ़्त होने लगी| अंततः यह सूचना आई कि आपका पास गेट क्रमांक फलां पर है आप सीधे आ जाईए| वे मित्र सहयोगी और अफसर भी सुबह-सुबह परेशान हुए जिनको मैं इस अल्प विकसित इलाके में तल्लीनता से काम करते हुए देख खिन्नता के दौर में उनसे प्रेरणा लेता हूँ कि इलाके की तस्वीर जरूर बदलेगी ,बशर्ते कोई सिस्टम बने,हम प्रोफेशनल रुख अख्तियार करें| खीज इस बात की भी होती है कि ऐसे दिन देखने के लिए ही हम छत्तीसगढ़िया पत्रकारों ने पिछली सदी के अंत में जंतर -मंतर पर धरने दिए थे और दिल्ली में तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री मदनलाल खुराना की कांफ्रेंस में उचक उचक कर नए राज्यों के गठन बाबत सवाल पूछे थे| इस प्रसंग पर एक मित्र की टिप्पणी - "बन गिस हमर राज अब तंहू भुगत" |
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता करना बेहद खतरनाक ही नहीं क्लेश-जनक भी हो गया है| ऐसा लगता है कि कोई सिस्टम जैसी कोई चीज विकसित ही नहीं हो पाई है |ताजा मामला छत्तीसगढ़ विधान-सभा का है| इसका बजट सत्र चल रहा है| सत्र की कवरेज के लिए पत्रकारों के पास बनाने का काम सचिवालय करता है| इसके लिए बाकायदा स्टाफ है मगर लाल फीताशाही की हद देखिए कि यह कैसे काम करती है| आठ दिन पहले एक आवेदन दिया गया जिसके मुताबिक़ कायदे से प्रवेश"पास" सत्र शुरू होने के दिन से पहले ही बन जाना चाहिए था मगर नहीं बन पाया| हमेशा की तरह कई संदेशवाहक रिमाईंडर दिए गए मगर कहा गया कि एक आवेदन और दे दीजिए| थक -हार कर वो भी दे दिया गया| सदन में बजट पेश होना था और सुबह नौ बजे तक मेरा पास नहीं बन पाया था|इसके बावजूद कि मुझे यह बताने में शर्मिंदगी महसूस हो रही है कि मैं विधानसभा की पिछली मीडिया समिति का सदस्य रहा हूँ | दिल्ली विधानसभा की मीडिया सलाहकार समिति का भी सदस्य रहा हूँ और लोक सभा की कवरेज भी छह साल की है| |
मित्रों पास तो बन चुका मगर इसके लिए सुबह-सुबह जितने फोन करने पड़े, फूं-फां करनी पडी कि उससे सचमुच कोफ़्त होने लगी| अंततः यह सूचना आई कि आपका पास गेट क्रमांक फलां पर है आप सीधे आ जाईए| वे मित्र सहयोगी और अफसर भी सुबह-सुबह परेशान हुए जिनको मैं इस अल्प विकसित इलाके में तल्लीनता से काम करते हुए देख खिन्नता के दौर में उनसे प्रेरणा लेता हूँ कि इलाके की तस्वीर जरूर बदलेगी ,बशर्ते कोई सिस्टम बने,हम प्रोफेशनल रुख अख्तियार करें| खीज इस बात की भी होती है कि ऐसे दिन देखने के लिए ही हम छत्तीसगढ़िया पत्रकारों ने पिछली सदी के अंत में जंतर -मंतर पर धरने दिए थे और दिल्ली में तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री मदनलाल खुराना की कांफ्रेंस में उचक उचक कर नए राज्यों के गठन बाबत सवाल पूछे थे| इस प्रसंग पर एक मित्र की टिप्पणी - "बन गिस हमर राज अब तंहू भुगत" |
4 comments:
विधानसभा हो या कोई और सभा, जहां भी लोग सत्ता में हैं, उनमें ज्यादातर मनुष्य ही नहीं है. दिखाते ज़रूर मनुष्यों की तरह है, लेकिन चरित्र से चौपाये है. खुद तो दो कौड़ी के है और सोचते है, दूसरा भी उनकी तरह दो कौड़ी का हो जाये. यह मानसिकता है. यह सब छद्म-लोकतंत्र की त्रासदियाँ है. इन सबको झेलाना ही पड़ता है. यह पत्रकारिता की धार को और पैना करती है. इसलिए विचलित होने की ज़रुरत नहीं. जूझने की और इसी तरह बेबाकी के साथ लिखने की आवश्यकता है. शायद कुछ सुधर हो. विधानसभा के मामले में मेरा अनुभव भी इसी तरह का रहा है. खैर....बढ़िया लिखा. बधाई. सिस्टम सुधर जाये तब तो कोई बात है. वरना ये लोग गाँठ बाँध लेते है. सत्ता-प्रशासन से जुड़े अधिकाँश चेहरे (कुछ अच्छे भी हैं) भले ही चिकने हो, करतूत घटिया है. यह लोकतंत्र के नए समाज का चेहरा है.
पत्रकारिता का तो वह हाल है ..छतीसगढ़ में करिये या दिल्ली में या फिर भटिंडा में.उसूलों के साथ करेंगे तो जिन्दा रहने की कोई गारंटी नहीं.
बहुत खूब ...अच्छी लगी आपकी शैली !!
पत्रकारिता का तो वह हाल है ..छतीसगढ़ में करिये या दिल्ली में या फिर भटिंडा में.उसूलों के साथ करेंगे तो जिन्दा रहने की कोई गारंटी नहीं.
shikha varshney se sabhar
एक टिप्पणी भेजें