यादों में बाबूजी(7)
मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011
दीपावली आज भी मनती है और उस दौर में भी मनती थी जब बिजलीविहीन गाँव में चारों तरफ घुप्प अँधेरे में रोशनी की एक छोटी सी किरण भी पुलकित कर देती थी. वो सुकून रंगीन आर्क लाईट झालर से नही आता जो तब एक मिट्टी के दीये को देख कर मिलता था..
दीपावली घर भर में धूमधाम से मनाई जाती.
बाबूजी हमेशा इस किस्म के पटाखे लाते कि उनसे ज्यादा शोर ना हो. फुलझड़ियाँ.. जमीन चकरी.. अनार दाना .. और लक्ष्मी दन्नाका .. दीपावली से हफ्ते भर पहले माहौल बनाने के लिए बच्चों को टिकली पटाखे बांट दिए जाते. प्लास्टिक की बंदूकें तब पैदा नही हुई थी, बच्चे पत्थरों के टुकड़े से टिकली फोड़ते. पैरों के अंगूठे से टिकली को चटाक कर दिया जाता. भले ही पाँव में बारूद जल जाए उस वक्त मुस्कुराते हुए योद्धा बताते कि देखो हम कितने शूरवीर हैं. रात में सोते समय सबको याद आता.. कहाँ जल गया है ..कहाँ कट गया है..
दीपावली पर "छूई मिट्टी" की खुशबू से घर गमकता रहता. गाँव में टाईल्स मार्बल्स और स्थाई नकली फर्श नही होते थी... मिट्टी से घर लीप दिया जाता ... ..चूना पोता जाता और छूई खास जगहों पर नजर आती.. जगमग और नया-नया सा चारों और रहता..
सीताफल .. अमरुद.. मूगफली.. और शकरकंद की फसल उफान पर होती और दीपावली पर इनका ख़ास पूजन होता.. पूरा मौसम इन्ही चीजों के नाम रहता. सर्दी लग जाती नाक बहती जाती मगर इनको खाना नही छूटता..
दीपावली पर बाबूजी ख़ास गांधी टोपी पहन कर पूजा करते. उन्होंने एक विशेष आकृति को चमकीले कागज़ पर उकेरा जिसमे कुलदेवी समेत हनुमानजी की भी फोटो है. उसी को पूजा जाता है. फोटो फ्रेमिंग को हर साल नया किया जाता है ..रंग-रोगन करके..
बाबूजी के पूजा घर में इतनी सारी तस्वीरें थी कि हाथ जोड़ते-जोड़ते खीज होने लगती और जब उनसे पूछता तो वे कह देते आराध्य एक होना चाहिए.. और मन से पूजा होनी चाहिए.. मैं इस दौरान एक अभ्यास करता ..आंख मूँद कर एक एक फोटो का स्मरण करता और नाम याद करता जाता.. स्मृति का अभ्यास होता.. बाबूजी कर्मकांड की बजाय सुमिरन में तल्लीन नजर आते..
तराशी हुई लकड़ी के एक बड़े पाटे पर लाल कपड़ा बिछा कर सारी पूजन सामग्री सजा दी जाती और अगले दिन अलसुबह बाई गोवर्धन पूजा करती . फिर सुबह उन पारंपरिक मिठाईयों से भरे कनस्तर खोल दिए जाते जिनको पूजा तक छूने की भी मनाही होती..
आम के पत्तों के तोरण घर के आंगन में झूलते और रंगीन कागजों की झंडियाँ बता देती कि यह खास त्यौहार साल में एक बार आता है.. रंगोलियाँ बनाते हुए कोई आकृति गड़बड़ हो जाती तो बाबूजी दुरुस्त कर देते..आसमान के बजाय बाहर खड़ी बैल गाड़ियों की तरफ राकेट छोड़ना ...किसी के घर में जलाने के लिए पड़े कचरे के ढेर में चुपचाप एक पटाखा घुसा देना ... पुराने कनस्तर में बम फोड़ना और कुत्ते की पूछ में पटाखा बांध कर गाँव भर में उसे दौड़ाने के दृश्य उस मदमस्त सांडनुमा दौर की यादों की फुलझड़ियाँ से बावस्ता हैं और इन सबके बीच मंद-मंद मुस्कराते हुए बाबूजी..जो एक दिन आंख बचा कर देख कर भी अनदेखा करते से लगते सब मस्ती की छूट मानो दे देते थे...
दीपावली घर भर में धूमधाम से मनाई जाती.
बाबूजी हमेशा इस किस्म के पटाखे लाते कि उनसे ज्यादा शोर ना हो. फुलझड़ियाँ.. जमीन चकरी.. अनार दाना .. और लक्ष्मी दन्नाका .. दीपावली से हफ्ते भर पहले माहौल बनाने के लिए बच्चों को टिकली पटाखे बांट दिए जाते. प्लास्टिक की बंदूकें तब पैदा नही हुई थी, बच्चे पत्थरों के टुकड़े से टिकली फोड़ते. पैरों के अंगूठे से टिकली को चटाक कर दिया जाता. भले ही पाँव में बारूद जल जाए उस वक्त मुस्कुराते हुए योद्धा बताते कि देखो हम कितने शूरवीर हैं. रात में सोते समय सबको याद आता.. कहाँ जल गया है ..कहाँ कट गया है..
दीपावली पर "छूई मिट्टी" की खुशबू से घर गमकता रहता. गाँव में टाईल्स मार्बल्स और स्थाई नकली फर्श नही होते थी... मिट्टी से घर लीप दिया जाता ... ..चूना पोता जाता और छूई खास जगहों पर नजर आती.. जगमग और नया-नया सा चारों और रहता..
सीताफल .. अमरुद.. मूगफली.. और शकरकंद की फसल उफान पर होती और दीपावली पर इनका ख़ास पूजन होता.. पूरा मौसम इन्ही चीजों के नाम रहता. सर्दी लग जाती नाक बहती जाती मगर इनको खाना नही छूटता..
दीपावली पर बाबूजी ख़ास गांधी टोपी पहन कर पूजा करते. उन्होंने एक विशेष आकृति को चमकीले कागज़ पर उकेरा जिसमे कुलदेवी समेत हनुमानजी की भी फोटो है. उसी को पूजा जाता है. फोटो फ्रेमिंग को हर साल नया किया जाता है ..रंग-रोगन करके..
बाबूजी के पूजा घर में इतनी सारी तस्वीरें थी कि हाथ जोड़ते-जोड़ते खीज होने लगती और जब उनसे पूछता तो वे कह देते आराध्य एक होना चाहिए.. और मन से पूजा होनी चाहिए.. मैं इस दौरान एक अभ्यास करता ..आंख मूँद कर एक एक फोटो का स्मरण करता और नाम याद करता जाता.. स्मृति का अभ्यास होता.. बाबूजी कर्मकांड की बजाय सुमिरन में तल्लीन नजर आते..
तराशी हुई लकड़ी के एक बड़े पाटे पर लाल कपड़ा बिछा कर सारी पूजन सामग्री सजा दी जाती और अगले दिन अलसुबह बाई गोवर्धन पूजा करती . फिर सुबह उन पारंपरिक मिठाईयों से भरे कनस्तर खोल दिए जाते जिनको पूजा तक छूने की भी मनाही होती..
आम के पत्तों के तोरण घर के आंगन में झूलते और रंगीन कागजों की झंडियाँ बता देती कि यह खास त्यौहार साल में एक बार आता है.. रंगोलियाँ बनाते हुए कोई आकृति गड़बड़ हो जाती तो बाबूजी दुरुस्त कर देते..आसमान के बजाय बाहर खड़ी बैल गाड़ियों की तरफ राकेट छोड़ना ...किसी के घर में जलाने के लिए पड़े कचरे के ढेर में चुपचाप एक पटाखा घुसा देना ... पुराने कनस्तर में बम फोड़ना और कुत्ते की पूछ में पटाखा बांध कर गाँव भर में उसे दौड़ाने के दृश्य उस मदमस्त सांडनुमा दौर की यादों की फुलझड़ियाँ से बावस्ता हैं और इन सबके बीच मंद-मंद मुस्कराते हुए बाबूजी..जो एक दिन आंख बचा कर देख कर भी अनदेखा करते से लगते सब मस्ती की छूट मानो दे देते थे...
4 comments:
आपको तथा आपके परिवार,मित्रगण तथा शुभचिंतकों को दीपावली की बहुत शुभकामनाएं ।
सुन्दर प्रस्तुति………
आपको तथा आपके परिवार,मित्रगण तथा शुभचिंतकों को दीपावली की बहुत शुभकामनाएं ।
बचपन की यादें , बाबूजी , खेत-खलिहान और गाँव की दीवाली की तरोताजा स्मृतियाँ साकार हो उठी है इस आलेख में . आभार . दीपावली के शुभ अवसर पर आपको सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएं .
मर्मस्पर्शी संस्मरण पढ़ कर अच्छा लगा. इसे जारी रखो. औपन्यासिक शैली में लिखी गयी संस्मरण वाली पुस्तक बन जायेगी.
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