श्रद्धेय बबनजी के बिना
शनिवार, 21 नवंबर 2015
आदरणीय, संपादकों के संपादक, पत्रकारिता के पितृपुरुष, संस्कारवान कलम के धनी बबन प्रसाद मिश्र का नाम छत्तीसगढ़ के पत्रकारों के लिए अनचीन्हा अंजाना नहीं है। 7 नवम्बर को वे दुनिया से रुखसत हो गए। अब स्मृतियाँ मुझे अस्सी के दशक की ओर लगभग 32 साल पीछे खींच रही हैं जब 18 साल का एक युवा गांव से नया नया शहर में आया था। लिखने की कुछ तमीज पैदा हो गई थी और युगधर्म में एक चिट्ठी क्या छपी युवा तो उछल कर सातवें आसमान पर पहुंच गया। जा पहुंचा युगधर्म के सिटी स्टेशन पंडरी रायपुर दफ्तर। यहां से शुरू, रमेश शर्मा की पत्रकारिता यात्रा। मिले बबनजी।
सुदर्शन , सौम्य ,शांत ,शालीन। मै बहुत सा कुछ लिख कर उनको दे आया। वे इस रूप में मिले जैसे कोई पिता अपने पुत्र से मिलता है। अब तो रोज़ पंडरी की दौड़ लगने लगी। पत्रकार कैसे बनते हैं यह नहीं मालूम था मगर इतना इल्हाम जरूर था कि श्रद्धेय बबनजी की छत्रछाया मिल जाए तो कल्याण समझो। मै लिख लिख कर ले जाता वे आगे बढ़ा देते। कुछ छपता कुछ नही छपता। इस बीच देव कृपा से पाकेट मनी निकलने के लिए की जा रही एक दुकान की पार्ट टाइम नौकरी छूट गई और मै एक ब्रेक क़ी तड़प या आगे आने की ललक या युगधर्म रास्ते से सुनहरे भविष्य की झलक पा कर छत पर कलम घिसता यदाकदा मुंह लटकाए जब तब पंडरी में बबनजी के पांव छूने पहुंच जाता। नैया अब आपके हाथ। वो एक दौर था। टर्निंग पाईंट। किसी गलत सलत मौके ने मुझे लपक लिया होता या आगे आने की मजबूरी में कोई और लाईन पकड़ लेता तो आज इस मुकाम पर नही आता जिसमे कुछ नही तो एक आत्म संतोष तो है।
बबनजी ने खूब लिखवाया। गिरीश पंकजजी और किशोर दिवसेजी के मातहत चलने वाले कालमों में खूब कलम घिसवाई और जब ये देखपरख लिया कि बन्दे में कमिटमेंट है तो मेरी जरूरतों को शायद चेहरे पर पढ़ कर एक दिन मुझे सिटी रिपोर्टर नियुक्त कर दिया और तनख्वाह 250 रूपये जिसे अगले तीन महीने में अपॉइंटमेंट लैटर के साथ 900 रूपये का पैकेज कर दिया ।
उस ज़माने में यह बड़ी रकम थी जब मकान किराया होता था 80 रूपये। यह एक एहसान था उनका मुझ पर। मै कालेज में एडमिशन भी नहीं ले पाया था मगर लिक्खाडी में खुद को पता नही क्या समझता था। आत्मविश्वास का अतिरेक या वयः जनित हार्मोनल चेंजेस से पैदा होने वाला दुस्साहस। एक मैट्रिक पास लड़के को रिपोर्टर बनाते विरोध भी होना स्वाभाविक था मगर उस दौर के सीनियर उदारमना तो थे , लिटरेट होने और शिक्षित होने का फर्क भी समझते थे। अविनाश देशपांडे क्राइम चीफ हुआ करते थे। मै क्राइम रिपोर्टर। जीजाजी ने एक बाइक दे दी, मै तो अब
शहर में यूँ अकड़ता घूमता मानो खबर भी मुझे लिखनी है और दुष्टों को सजा भी खुद सुनानी है। एक दिन मैंने चौकीदार की मौत पर 8 कालम का हेडिंग दे कर समाचार तान दिया। तत्कालीन एसपी रुस्तम सिंह परेशान। खबर में पुलिस किरकिरी हुई थी क्योंकि पुलिस की मजम्मत करती खबर का हेडिंग था - पुरुषोत्तम के हत्यारों को जमीन खा गयी या आसमान निगल गया.. शिकायत भीतर और बाहर दोनों जगह से हुई मगर बबनजी ने एक शब्द नही कहा। उलटे शाबासी दी। एनकरेज किया।
मुझे याद है तब माली हालत ठीक नही थी लिहाजा अखबार बस जैसे तैसे निकलता था मगर सब सहकर्मी उत्साह से लबरेज रहते थे। बबनजी यदा कदा जरूर टोकते कि पैसे -वैसे नही हैं तो उनसे ले लूँ। तनख्वाह आती रहेगी। उनके घर भी जाना होता जहां सभी सदस्य ख़ास कर आंटीजी (श्रीमती मिश्र) कुछ खाए -पिए बिन जाने नही देती थीं।
तब कई मौकों पर बबनजी का राष्ट्र प्रेम , कलम की शुचिता , अडिग साहस, आग उगलते अग्रलेख सामने आते। आगे दो सालों में प्रावीण्य सूची में पत्रकारिता का कोर्स और बबनजी समेत गिरीशजी इत्यादि की प्रेरणा से 16 साल तक दिल्ली की यात्रा होनी लिखी थी। रायपुर छूट गया, युगधर्म यादो से बावस्ता हुआ और एक दिन बंद भी हो गया लेकिन बबनजी से प्रायः मुलाकात होती रही और स्नेह बराबर मिलता रहा। दिल्ली में फोन करके मिलने बुला लेते। खोज खबर लेते ,नसीहत मिलती। उनका जाना ऐसा लगा जैसे अपने ही परिवार से किसी सरपरस्त का जाना हो। कभी उनको क्रोधित हो कर अनापशनाप बोलते नही सुना। व्यक्तित्व की तरह उनका लेखन भी शालीन रहा। मै उनकी स्मृतियों को नमन कर चाहूंगा कि अगला जन्म भी पत्रकार का ही मिले और शुरुआत में ही बबनजी की सरपरस्ती हासिल हो। सादर प्रणाम।
1 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, हिन्दी फिल्मों के प्रेरणादायक संवाद - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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