यादों में बाबूजी-(1)

सोमवार, 17 जनवरी 2011

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मेरे पिता को गुजरे हुए 14 साल बीत चुके हैं लेकिन वे लगातार मेरी स्मृतियों में बने रहे हैं|
ये स्मृतियाँ मुझे आगे बढ़ने की शक्ति देती हैं और गहन उदासी के पलों में आंतरिक संबल बनी रहती हैं|
जाने किन-किन पलों में उनके बारे में लिखता चला गया| कई दिन.. कई माह गुजरे और अब न जाने क्यूं लगता है कि मैंने बाबूजी पर जो लिखा वह मेरी निजी डायरी का हिस्सा भर नहीं होना चाहिए|

मेरे अंतस की गहराईयों से दुआ उनके लिए जिनके "बाबूजी" हैं, वे उनको संभालें, बरगद की छाँव नसीब से मिलती है|

गिरीशजी का शेर है-

''जब बुजुर्गों की दुआएं साथ रहती हैं
यूं लगे शीतल हवाएं साथ रहती हैं''
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जीवन जब से शुरू हुआ है तभी से संघर्ष उसके साथ जुड़ा हुआ है|

हरेक जीव अपने जीने के लिए संघर्ष करता है|

जीवन में आने का संघर्ष, जीवन को बचाने और अपने मुताबिक़ पूर्णत्व को पाने के साथ ही समाप्त होता है|

कुछ लोग जीवन के संघर्ष से दुखी हो कर तमाम उम्र रुआंसे रह जाते हैं तो कुछ अपने जीवन के संघर्ष में तप कर सोने के कुंदन हो जाने की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं और उनका जीवन एक मिसाल बन जाता है-दूसरों के लिए|

लगन और मेहनत से वे जीवन में ही बहुत कुछ हासिल कर लेते हैं|

सोन महाराज का जीवन भी कुछ ऐसा ही था| माँ-पिता के इकलौते पुत्र| लाड-प्यार में पले-बढे| राजस्थान के जिला जोधपुर-फलोदी-लोहावट में जन्मे मगर तकदीर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा ले आई|
तब पश्चिमी उड़ीसा का एक बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ अर्थात दक्षिण कोसल का ही एक अंग था|
सोन महाराज उनका प्रचलित नाम था-पूरा नाम था सोहनलालजी शर्मा| घर के लोग सोनू कहते|
बड़े घरानों में मुनीम ब्राह्मण को महाराज कह कर बुलाया जाता है लिहाजा वे सोन महाराज के नाम से ही जाने गए|

बचपन से कुशाग्र बुद्धि थे और सहनशीलता,परोपकार,त्यागवृत्ति और सबसे दुर्लभ मानवीय गुण मैत्री समभाव उनके स्वभाव के आभूषण रहे| अपने इन्ही गुणों की बदौलत वे जहां भी रहे उन्होंने सम्मान हासिल किया और सर्वात्मीय बने रहे|

सोन महाराज के पिता अचलदासजी अपने जमाने के दबंग शिक्षक थे और राजस्थान में उनके पढाए हुए छात्र मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पंहुचे.. लेकिन शायद दीपक तले ही अन्धेरा रहता है|

पढने-लिखने में कुशल रहने के बावजूद परिस्थितियों ने ऐसा घेरा कि सोन महाराज कालेज की पढाई भी पूरी नहीं कर सके और विभाजन के दिनों में जब पूरे देश में उथल-पुथल थी, पूरा परिवार भीषण दुर्भिक्ष की चपेट में आ कर पलायन के लिए विवश हो गया|

सोन महाराज का पूरा कुनबा राजस्थान से रायपुर आ गया| घर पर कुल चार प्राणी| छोटी बहन नरबा और माता बलजीबाई| रायपुर आने के बाद अचलदासजी का कार्यक्षेत्र बदल गया| उनके भाई रिखबदासजी रायपुर की अनेक व्यापारिक फर्मों में मुनीम थे लिहाजा अपने भाई अचलदासजी का उन्होंने इसी लाईन में पुनर्वास करा दिया| शिक्षा क्षेत्र की पटरी से उखड़ कर अचलदासजी काम तो करते रहे मगर जम नहीं पाए| नतीजा यह हुआ कि सोन महाराज पर समय से पहले परिवार की जिम्मेदारी आ गयी|

विस्थापन के उस दौर में सोन महाराज बमुश्किल 10 बरस के रहे होंगे | रायपुर के हिन्दू हाई स्कूल में दाखिल जरूर हुए मगर कालेज तक नहीं पहुँच पाए|

.................(जारी)...........................

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सब पर भारी श्वेता तिवारी

शनिवार, 8 जनवरी 2011

आमतौर पर सेल्यूलाईड की रोशनी में झिलमिलाते सितारों को बहुत करीब से दिखाने वाले टीवी शो बिग बॉस में दर्जन भर नामचीन हस्तियों के बीच १४ हफ्ते तक चले मुकाबले में श्वेता तिवारी सब पर भारी पडीं| बिग बॉस सीजन -४ का यह शो शुरू से ही कई कारणों से दिलचस्प बन गया था| एक तो जम कर गाली-गलौज और दूसरा हॉलीवुड सेलिब्रिटी पामेला एंडरसन की एंट्री और सारा खान की शादी की नौटंकी की वजह की वजह से। कलर्स पर प्रसारित होने वाले इस चर्चित रियलिटी शो में शशिकला की नई अवतार डाली बिंद्रा और श्वेता तिवारी के बीच झगडे के बाद से ही तय हो गया था की असली कंटेस्टेंट श्वेता ही है| श्वेता ने गुस्सा भी दिखाया लेकिन आपा खोते हुए भी वे वाचाल नहीं हुईं| उनने अपनी इमेज को आखिर तक मेंटेन किया और व्यवहार, विचार और आचार सभी मोर्चों पर वही रहीं जो वे हैं| एक घर में 14 हफ्ते बिताना किसी के लिए भी आसान नहीं है इसके बावजूद कि सब स्क्रिप्टेड हो| एक करोड़ रुपयों की राशि श्वेता ने जीत ली हैं| यह बड़ी रकम है और इस राशि से यकीनन उनको अपनी उस बच्ची के लालन पालन में मदद मिलेगी जिसका पियक्कड़ पिता उसके साथ नहीं रह पाया | शो बिजनेस की चकाचौंध से भरी दुनिया में कई श्वेता तिवारी हैं जो एक साथ कई मोर्चों पर जूझती हैं और सबको हैरान कर देती हैं जब वे अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवा लेती हैं|

बिग बॉस का कांसेप्ट ही शायद इसलिए सफल रहा है कि दर्शक सोप आपेरा देख-देख कर बोर हो चुके हैं| अब वे नया और स्वाभाविक देखना चाहते हैं| रील लाईफ नहीं रीयल लाईफ| यह नए दौर की दुनिया है| सूचना माध्यम इतने तगड़े हैं कि अब मायापुरी और माधुरी पढने के लिए हफ्ता भर इंतज़ार की जरुरत नहीं पड़ती| अखबार ही सितारों की जमीन नाप लेते हैं| ऐसे दौर में रीयल लाईफ हीरो या हीरोइन में दर्शक अपना अक्स ढूंढते हैं| क्या वजह रही कि शो के पूरे समय औसतन दर्शक वर्ग से श्वेता के नाम की ही पुकार मचती रही शायद इसलिए भी कि उनने सकारात्मक भारतीय मूल्यों का सर्वाधिक प्रतिनिधित्व किया और यह भी ना भूलें कि हमारे यहाँ सीता की पूछ है तो कैकेयी की भी, इसीलिए शो में लड़ लड़ कर या लड़ने के लिए हरवक्त तैयार, भीमकाय खली तक को गरिया देने वाली डाली बिंद्रा को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया और इसलिए दुबारा उनकी एंट्री हुई|नायिका को सफल करने के लिए खलनायिका भी जरूरी है इसलिए क्रेडिट तो डाली को भी जाना चाहिए जिनके कारण श्वेता उभर पाईं|

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बामुलाहिजा बिनायक सेन

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010


मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं चिकित्सक बिनायक सेन को रायपुर की एक अदालत ने देशद्रोह के आरोप में सजा क्या सुनाई दुनिया-भर में बौद्धिक भूचाल आ गया है| अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई है| सेन की वयोवृद्ध माताजी ने भी अपने बेटे को बेकसूर माना है और रिहाई की अपील की है| ख़ास कर के नेट जगत में इस फैसले की जम कर मजम्मत की जा रही है |सेन और उनके दीगर दो सजा पाए कथित साथियों पर छत्तीसगढ़ में माओवादियों को मदद पहुंचाने का आरोप है और सरकारी वकीलों का आरोप है कि उन्होंने माओवादी नेटवर्क को मजबूत करने में मदद की है| हालांकि सेन हमेशा खुद को बेकसूर बताते रहे हैं. उन्होंने एक ताजा बयान जारी कर कहा है कि उनके खिलाफ सबूत गलत तरीके से जुटाए गए|सेन ने अपने बयान में कहा, "छत्तीसगढ़ सरकार मुझे मिसाल बना कर पेश करना चाहती है कि कोई दूसरा व्यक्ति राज्य में मानवाधिकार की बात न करे."

सेन समर्थक कह रहे हैं कि उनको सुनाई गई सजा कानूनी आधार पर खरी नहीं उतरती। उनके खिलाफ कोई गवाह तक नहीं है। दस्तावेजी सबूत भी देशद्रोह का आरोप सिद्ध नहीं करते| फैसले की आलोचना करने वालों का कहना है कि डॉ. सेन को सीपीआई (माओवादी) का करीबी बताया गया है, जिसका आधार दो पुलिसवालों का निराधार बयान है।

उन्हें रिहा करने के लिए इंटरनेट पर फेसबुक और ट्विटर के जरिए बड़ा अभियान शुरू हो चुका है| सजा के खिलाफ वामपंथी रुझान रखने वाले तमाम बुद्धिजीवी लामबंद हो गए हैं। दिल्ली समेत देश भर में कई जगहों पर प्रदर्शन हुए हैं । इन बुद्धिजीवियों का हस्ताक्षरित आरोप है कि सेन को जानबूझकर फंसाया गया है।

उनके वकील कोलिन गोंजाल्वेज ने सर्वोच्च अदालत के आदेशों को नजरअंदाज करने वाला फैसल बताया। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ सिंह विरुद्ध बिहार के मामले में कहा था कि देशद्रोह के आरोपों को संविधान द्वारा दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में भी परखना चाहिए|देशद्रोह का अपराध तभी साबित होता है, जब राज्य के खिलाफ बगावत फैलाने का असर सीधे तौर पर हिंसा और कानून-व्यवस्था के गंभीर उल्लंघन के रूप में सामने आए।

इन पलट आरोपों की रोशनी में देखा जाए तो सेन के मामले में ऐसा लगता है कि कोर्ट ने मानो उनको जबरिया सजा सुनाई है | फैसले के पक्षधर लोगों की तरफ से कहा जा सकता है कि सेन समर्थक सिर्फ एकांगी चश्मे से चीजों को देख रहे हैं| सवाल है कि सेन ने ऐसा क्या किया जो वे सुरक्षा बलों की निगाह में आ गए| इसके लिए बस्तर में लौटना होगा| बस्तर में सलवा जुडूम आन्दोलन चला जो नक्सली हिंसा के खिलाफ था| इस पर पूरे राज्य में औसतन सकारात्मक प्रतिक्रिया आई| हिंसा से आजिज लोगों ने जुलूस निकाले और नक्सलियों की खिलाफत की| 2005 में यह हुआ| हालात ऐसे मोड़ पर आ खड़े हुए कि तब से एक वर्ग जिसमे सेन भी रहे हैं , ने सलवा जुडूम का विरोध किया| सवाल था कि सलवा जुडूम के विरोध का मतलब नक्सलियों का अघोषित समर्थन| इस विरोध के बाद सेन अपनी साफगोई और सादगी के शिकार हुए| वे जेल में बंद संदेहियों से मिलते रहे,पत्र पहुंचाते धरे गए(आरोप है )|वे जिस विचारधारा से जुड़े वो हिंसा को गलत नहीं मानती| साबित हो जाने पर क़ानून गलत मानता है|

गरीबों के इलाज का जो रास्ता उनने पकड़ा वो तो ठीक था, स्तुत्य था.. मगर खुद श्री सेन भी शायद नही जानते होंगे कि अचानक चलते-चलते वे एक ऐसी बारूदी सुरंग में फंस गए जिसमे दोनों तरफ खतरे थे| फिर एक समय भी आया जब नक्सलियों ने वामपंथियों को भी शर्मिन्दा किया तो सेन ने नक्सली हिंसा की निंदा भी की लेकिन तब तक हालात बेकाबू हो चुके थे और अब तो हालात यह हैं कि नक्सली रहें या राज्य सत्ता| नक्सलियों ने जिस प्रकार जवानों को एम्बुश में फंसा कर उनको मारा , उसकी दिल्ली और दुनिया-भर में प्रतिक्रिया हुई| अब तक बस्तर में आदिवासियों का शोषण हो रहा था, ठेकेदार लूट रहे थे, अफसर घूस लेते थे, सब चलता था. मगर शोषण का जवाब हिंसक शोषण तो नहीं है| अब वहाँ युद्ध के हालात हैं| सीधी लड़ाई है कि नक्सली रहें या सरकार... तो इसमें जो भी सामने पडेगा वो चिन्हित होगा| सेन साब के प्रति परिचय न होते हुए भी सम्मान की भावना है कि उनने डाक्टरी छोड़ कर गरीबों की सेवा का रास्ता चुना वरना आजकल तो लोग मेडिकल पढ़ते हुए ही नर्सिंग होम खोलने की जुगत में भिड जाते हैं| जो भी अमरीका, दिल्ली या दूर-दराज में बैठ कर चिंतित हैं, उनको यहाँ की स्थिति आ कर देखनी चाहिए कि वे जिन आदिवासियों की बात कर रहे हैं वो सिर्फ शान्ति चाहता है| नक्सली, क्रान्ति लाने में बस्तर के तीस साल निकाल चुके अब सरकार को शान्ति लाने का वायदा पूरा करने के लिए कुछ साल देने में क्या हर्ज है|

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अटल राजनीति

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010


भारतीय राजनीति के शलाका पुरुष सम्माननीय अटल बिहारी वाजपेयी कल अपना 87वां जन्म दिन मनाएंगे| राजनीति हो या समाज का कोई और भी क्षेत्र , अटलजी ने अपनी एक ऐसी साख बनाई है जो आज की तारिख में किसी और नेता की है यह कोशिश करके भी दावे से नही कहा जा सकता| धोती पहनने वाले, सादगी को आचरण में दर्शाने वाले और जो कहा सो कर दिखाने वाले नेताओं की परिदृश्य से गुम हो चुकी पीढी में अटलजी आज भी अग्रिम पंक्ति में हैं और सक्रिय न होते हुए भी अपनी चमक बिखेरे हुए हैं|

दिल्ली में उनके प्रधान मंत्रित्व काल की संसदीय रिपोर्टिंग से जुडी दो तीन घटनाएं हरदम याद आती हैं| एक तब, जब वे पहले बार पीएम बने मगर सिर्फ एक वोट से सरकार गिर गयी| तब प्रमोद महाजन जीवित थे और जोड़-तोड़ में माहिर थे मगर अटलजी ने जोड़-तोड़ से साफ़ मना कर दिया|

पद के लिए मूल्यों से समझौता नहीं करने का ऐसा जज्बा आज किस नेता में दिखता है?

संसद में लोक सभा की कार्यवाही उस रोज दिन भर और पूरी रात चली जब हिंदुत्व पर अटलजी का समापन भाषण आया| उसका सार यही था-हम स्वामी विवेकानंद के हिंदुत्व को मानते हैं जिसमे समरसता और उदात्त भावना है| संकीर्णता नहीं|

भाषण में सिद्धहस्त अटलजी को सुनते हुए एक पूरी पीढी बड़ी हुई है और कहना न होगा कि भाषण सुनने की वैसी ललक अब नई पीढी में नहीं है क्योंकि अटलजी जैसा भाषण देने वाले भी नहीं हैं| सरस्वती उनके कंठ में विराजती है| भाषण सुनने वाला उनका मुरीद हुए बिना नहीं रह सकता|
हे प्रभु मुझको इतनी ऊंचाई मत देना कि गैरों को गले न लगा सकूँ -जैसी पंक्तियाँ रच चुके अटलजी ने कविता को गहरे मानवीय सरोकार दिए और सब जानते हैं कि राजनीति में आने से पहले वे पत्रकार रहे हैं|

एक घटना मुझे याद आती है | तब वे नेता प्रतिपक्ष थे| इंडिया इंटरनॅशनल सेंटर में उनको साहित्य अकादमी वालों ने बुलाया था| कार्यक्रम के अंत में एक महिला ने तपाक से पूछा -अटलजी आपको क्या लगता है कि आप राम नहीं बन पाए या सीता को नहीं ढूंढ पाए ? उसी पल तत्काल जवाब आया- आप मिल ही गयी हैं अब दोनों मिल कर ढूंढ लेंगे|
हाजिर-जवाबी में माहिर और दूरंदेशी अटलजी ने जब परमाणु विस्फोट कराया तो दुनिया भर में भारत को अजीब नजरों से देखा गया| प्रतिबन्ध लगे| मगर अटलजी टस से मस नहीं हुए| कूटनीति में उनका भी जवाब नहीं रहा| उन्होंने दुनिया भर में दूत भेजे और देर-सबेर सबको मनवा लिया कि हम भी परमाणु शक्ति हैं|आज उस परीक्षण का असर यह है कि आए दिन युद्ध के धमकी देने वाले सदादुखी पड़ोसी अब शांत हैं| सबको साथ ले कर चलने की राह अटल जी ने चुनी| एन डी ए सरकार बना कर अटलजी ने गठबंधन राजनीति का एक नया अध्याय लिखा| उनकी सरकार पूरे समय तक चली| सेहत ने साथ नहीं दिया और वे खुद घोषणा कर गए कि अब प्रधान मंत्री नहीं बनूंगा वरना राजनीति के पंडित भी जानते हैं कि आज भी अटलजी अखिल भारतीय सर्वमान्य न सही मगर सारे नेताओं में सबसे अधिक बहुमान्य नेता हैं| उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु की शुभकामना|

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आदमी को हांकता है आदमी

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

उत्तर प्रदेश को देश भर में सिरमौर राज्य का दर्जा यूं ही हासिल नहीं है| फिर चाहे वह साहित्य के क्षेत्र में हो या राजनीति के क्षेत्र में| हाल के वर्षों के कुछ घटनाक्रम को छोड़ दिया जाए तो यूपी ने हमेशा लीड किया है और एक बार फिर से अलीगढ के एक काबिलेतारीफ अफसर ने मानवता को हमेशा कलंकित करने वाले पेशे के खिलाफ अपना हौसला दिखाया है|

जिलाधिकारी रविंद्र नायक ने एक आदेश निकला है जिसके मुताबिक़ ऊंचाई वाली जगहों पर रिक्शे पर बैठा हुआ पाए जाने पर सवारी को 500 रुपये का जुर्माना भरना पड़ेगा।आदेश में साफ़ चेतावनी है कि अगर अलीगढ शहर में फ्लाईओवरों, पुलों या चढ़ाई वाले अन्य स्थानों पर किसी व्यक्ति को साइकिल रिक्शा पर बैठे हुए पाया गया तो उससे 500 रुपये का जुर्माना वसूला जाएगा| नायक का कहना है कि मानवता के लिहाज से यह आदेश जारी किया गया है। मुझे लगता है कि रिक्शेवाले को चढ़ाई वाली जगहों पर किसी व्यक्ति को बैठाकर रिक्शा खींचने में बहुत परेशानी होती है। ज्यादातर लोग चढ़ाई पर नहीं उतरते, जो उचित नहीं है।

अब ज़रा गौर करें अपने शहर के हालत पर.. एक हांफता हुआ इंसान खींच रहा है सवारियों से लदा हुआ रिक्शा| मोटे-मोटे हट्टे-कटटे लोग जम कर बैठ जाते हैं और यह भी नहीं देखते कि बेचारा रिक्शावाला कितनी तकलीफ से रिक्शा खीचता है|

गिरीश पंकजजी की कविता से बात शुरू करें जो बरसों पहले जब उनने आग उगलती कविताएँ रचने के दौर में लिखी थी-

खून से जो ज़िन्दगी को सींचता है

आदमी आदमी को खींचता है

आदमी को हांकता है आदमी

इस सदी की सबसे बड़ी नीचता है|

सचमुच यह काम बहुत अमानवीय है कि कोई रिक्शे पर सपरिवार चढ़ जाए और रिक्शा-वाले की जान पर बन आए| रिक्शा वालों की दशा सुधरने के लिए दुर्ग की सांसद सरोज पांडे ने मेयर रहते हुए कई अच्छी काम किये थे| उनको चिकित्सा और दीगर सहूलियतें दी थी मगर वो काम नहीं कर पाईं जो रविन्द्र नायक साहब कर गए हैं| सचमुच होना चाहिए जुर्माना और यह भी तय हो कि कितने लोग बैठें? सवारियों की लदान को देखते हुए कुछ शहरों में रिक्शे डिजाइन ही इस तरह किये गए कि दो से ज्यादा लोग बैठ ही ना सकें| आखिरकार एक इंसान की मेहनत की मजदूरी देने का मतलब यह तो नहीं कि उसे बैल की तरह जोत दिया जाए| यह मांगें भी उठती रही हैं कि रिक्शों पर प्रतिबन्ध होना चाहिए| मतलब रिक्शे बंद| मेरी राय में यह अति होगी| कई लोगों से बातचीत में मैंने पाया कि रिक्शे आजीविका के सहज स्रोत हैं| गाँव से शहर में आए हैं कोई काम नहीं मिला तो पेट भरने के लिए रिक्शा खींच लिए| कोई ठौर नहीं मिला तो रिक्शे में ही सो लिए| वैसे अंततः बैन ही विकल्प है मगर वो आदर्श स्थिति तब आएगी जब हर हाथ को मनचाहा काम मिलेगा और हर सवारी को गली के मोड़ पर वाहन मिलेगा| मगर तब तक ऐसे आदेश की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि खुद यह नियम लागू हो जाए कि ऊँचे रास्तों पर सवारी यदि उतर सके तो उतर जाए वरना भरिये जुर्माना|

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अति वर्जयेत अरुंधति

मंगलवार, 23 नवंबर 2010


#लेखिका एवं सामाजिक कार्यकत्री अरूधंति राय के भुवनेश्वर के एक कार्यक्रम में संघ के कार्यकर्ताओं और आयोजकों के बीच हुए एक संघर्ष में आधा दर्जन लोग घायल हो गए. अरुंधति ने नक्सलियों को देशभक्त माना है|

.# भड़काऊ भाषण देने पर लेखिका अरुंधति रॉय के खिलाफ जिला अदालत में एक याचिका दायर की गई। ग्लोबल ह्यूमन राइट्स काउंसिल की तरफ से एसीजेएम अंशुल बेरी की अदालत में दायर इस याचिका में मांग की गई है कि अरुंधति रॉय को इस तरह के बयान देने से रोका जाए।

# कश्मीर पर दिए बयान से विवादों में घिरी लेखिका अरुंधति रॉय ने कहा कि देश में स्वतंत्र लेखकों की आवाज को दबाया जा रहा है। बुकर पुरस्कार विजेता लेखिका अरुंधति रॉय ने दिल्ली में हुए एक सेमिनार में कहा कि कश्मीर के लोग दुनिया के सबसे बर्बर सैनिकों के कब्जे में रह रहे हैं।

# दिल्ली में रविवार को भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा ने अरुंधति रॉय के घर के बाहर हंगामा और तोड़फोड़ किया। भाजपा महिला मोर्चा ने कहा कि या तो अरुंधति रॉय कश्मीर पर दिए अपने बयान को वापस लें या पाकिस्तान जाकर रहें।

# पटियाला हाउस कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी कर पूछा है कि अरुंधति रॉय और सैयद अली शाह गिलानी के खिलाफ एफआईआर क्यों नहीं दर्ज की गई।

# 13 फरवरी को दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक वार्ता के दौरान युवा (यूथ यूनिटी फॉर वाइब्रेंट एक्शन) के एक सदस्य ने लेखिका पर पाकिस्तान का समर्थन करने के विरोध में जूता फेंक दिया था। बाद में एक नीलामी में यह जूता एक लाख रुपए में बिका था।
# जम्मू एवं कश्मीर को लेकर विवादास्पद बयान देनेवाली लेखिका अरुंधति राय ने कहा है कि उन्हें उस मुल्क पर दया आती है, जहां इंसाफ की बात करनेवालों को जेल में डाला जाता है। उन्होंने कहा कि उनकी ओर से कश्मीरियों के लिए सिर्फ इंसाफ की आवाज उठाई गई है।

ये कुछ शाब्दिक तस्वीरें हैं | मकसद सिर्फ यह है कि स्वतन्त्रता अब इस कदर सिर चढ़ गयी है कि बोलने की छूट है तो इसका मतलब देश को ही जुतियाने लगिए| ऐसा लगता है कि अरुंधति खुद को संविधान से भी परे मानने लगी हैं| यह इसी भारत देश में संभव है वरना आन सांग सू की को एक दशक नजरबन्द रहना पडा और बेचारी बेनजीर ज़िंदा ही नहीं रह पाईं| इस दौर में यह साफ़ देखा जा रहा है कि सविधान और भारत की अखंडता के मायने उन लोगों के लिए कुछ नहीं हैं जिनको पुरस्कारों की चिंता सर्वोपरि रहती है| ऐसे लोगों में अरुंधति रॉय आजकल टॉप पर हैं और शर्मनाक हैरत की बात यह है कि एक बार कश्मीर पर वे इतना गलत बोल चुकी हैं कि उनकी जगह और कोई और होता तो अब तक जेल में ठूंस दिया गया होता| मगर अरुंधति देश के संयम, बड़े पुरस्कार की विजेता और एक प्रगतिशील लेखिका होने के प्रति सम्मान भाव को भीरुता समझे बैठी हैं और वे एक जिद्दी और वाचाल की छवि धारण कर रही हैं| कश्मीर पर ज़माना कुछ और बोले मगर वे तो खुद को सुकरात समझ बैठी हैं| भले ही कश्मीर में पाक-पोषित इंसर्जेंसी के कारण अशांति है मगर क्या करें अरुंधति जैसे लोगों को इसमें भारत का दोष लगता है| किसी एक मामले में वे कुछ बोलें तो समझा जा सकता है मगर वे तो अलगाववादियों की जुबान बोल रही हैं और पूरा पाक मीडिया उनके बयानों पर झूम रहा है|उनका भ्रम एक बार तो दूर होना ही चाहिए|
अब एक बार फिर अरुंधति को हिंसक माओवादी भा रहे हैं| सेमिनारों में उग्र वामपंथ को खुलकर ताज पहनाने वाले लीडरों को यह देखना चाहिए कि कई गुटों में माओवादी खुद विचारधारा से भटक गए हैं| नाम माओ का, कर रहे हैं -मनमानी | जो लोग निहत्थों का, अपनों का ही खून बहा रहे हों उनकी तो मजम्मत ही की जाएगी| सुनो अरुंधति छत्तीसगढ़ आओ और एक महीना रहो, आपको सब समझ आ जाएगा| जंगल में लोग हिंसा से आजिज आ चुके हैं | कश्मीर में जिस इन्साफ की बात आप कर रही हैं वो भारतीय संविधान के जरिये ही आएगा मगर क्या करें पाकिस्तान और अमरीका जैसे देश चाहते हैं कि कश्मीर को दुनिया के फलक पर ला कर भारत को लगातार नीचा दिखाया जाए.... और आप उनकी लाबी का महज एक टूल बन कर इस्तेमाल हो रही हैं|

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डमी सही टीचर तो हैं

सोमवार, 15 नवंबर 2010


बन्दूक के जोर पर टिके नक्सलवाद के दुष्परिणामों को लेकर काफी कुछ कहा जा चुका है और अब प्रभावित इलाकों में एक- दर -एक नए तरह की स्थितियां सामने आ रही हैं| ऐसे इलाकों में जान के जोखिम को देखते हुए सरकारी टीचर अब अपनी जगह स्कूल में पढ़ाने के लिए स्थानीय युवकों को डमी टीचर बना कर भेज रहे हैं। ये टीचर अपनी आधी सैलरी इसी आउट-सोर्सिंग पर खर्च कर रहे हैं।
हाल में प्रकाश में आए तथ्य हैं कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित सात जिलों में केवल 526 टीचर काम कर रहे हैं जबकि इन जिलों में 2,558 टीचर होने चाहिए। इसी तरह नक्सलियों की नई पसंदगाह बने उड़ीसा में नक्सल प्रभावित पांच जिलों में 6,003 टीचर होने चाहिए जबकि वहां केवल 3,566 टीचर हैं।यह आंकड़े कुछ पुराने हैं क्योंकि नक्सलवाद का विस्तार काफी तेजी से हुआ है और सिर्फ छत्तीसगढ़ में ही 18 में से ११ जिले नक्सलियों के शिकंजे में हैं| यहाँ जिक्र सिर्फ टीचरों का ही हो रहा है | कह सकते हैं कि शुक्र है कि पढ़ा तो रहे हैं| आदिवासी बच्चे पढाई का मुंह तो देखेंगे| हकीकत में कौन कहाँ पोस्टिंग पर है और उसकी जगह कौन ड्यूटी बजा रहा होगा यह कहना मुश्किल है| इसकी विभागीय तस्दीक के लिए जंगल के भीतर जाना होगा| जाए कौन? बस्तर की ही बात करें तो कई अफसर अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए राजी हैं मगर जाने के लिए राजी नहीं हैं| ऐसे हालात सभी विभागों के हैं| कोई जाना नहीं चाहता| जो गया है वो "कब निकलूं और खुली हवा छोड़ प्रदूषित शहर में सांस लूँ" इसकी जुगत भिडाने में ही ड्यूटी का आधा और शेष का पूरा समय निकाल रहा है| जान सबको प्यारी है|

परंपरा ऐसी बन गयी है कि हर राज्य में कुछ इलाके पनिशमेंट पोस्टिंग के मान लिए गए हैं| अब नक्सली खौफ है, पहले बस्तर को पिछड़ेपन की वजह से पनिशमेंट क्षेत्र माना जाता था| गौर करें कि जब सरकारे कारिंदे आएँगे ही नहीं तो विकास नहीं होगा और विकास नहीं होने का फायदा ही तो नक्सलियों को मिलता आया है| तब हालात काबू थे तो साहब से आया नही गया, अब बेकाबू हैं तो आने का चांस ही नहीं है| जो किसी तरह से डटे है वे काम नही करते यह कहना गलत होगा| अच्छा काम करने वाले भी उन लोगों के साथ नाप लिए जाते हैं जिनको पनिशमेंट नहीं मिला होता है और सचमुच वे अच्छा काम कर रहे हैं| यहाँ एक पहलू गौर करने लायक है कि नक्सलियों से ज्यादा उनका टेरर काम कर रहा है| होना यह चाहिए कि क़ानून का, सरकार का, व्यवस्था का टेरर(अर्थात असर) काम करे|
मुझे दिल्ली में कुछ लोग मिले जिनने रायपुर का नाम सुन कर कहा कि वही दंतेवाड़ा वाला..!! जबकि रायपुर से दंतेवाडा पूरी रात के सफ़र के फासले पर है| कई काबिल लोग जो नक्सलवाद के कारण इलाके से परहेज करते हैं और दुःख इस बात का होता है कि उनके अनुभव का लाभ उस इलाके को नहीं मिल पा रहा| इसका परिणाम फिलहाल तो यही दिख रहा है कि देश के निस्पृह और सरल नागरिक सदियों से सुविधाओं से महरूम रह कर पाषाण-युगीन जीवन जीने को बाध्य हैं और दो पाटों में पिस रहे हैं|

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