यादों में बाबूजी-(1)
सोमवार, 17 जनवरी 2011
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मेरे पिता को गुजरे हुए 14 साल बीत चुके हैं लेकिन वे लगातार मेरी स्मृतियों में बने रहे हैं|
ये स्मृतियाँ मुझे आगे बढ़ने की शक्ति देती हैं और गहन उदासी के पलों में आंतरिक संबल बनी रहती हैं|
जाने किन-किन पलों में उनके बारे में लिखता चला गया| कई दिन.. कई माह गुजरे और अब न जाने क्यूं लगता है कि मैंने बाबूजी पर जो लिखा वह मेरी निजी डायरी का हिस्सा भर नहीं होना चाहिए|
मेरे अंतस की गहराईयों से दुआ उनके लिए जिनके "बाबूजी" हैं, वे उनको संभालें, बरगद की छाँव नसीब से मिलती है|
गिरीशजी का शेर है-
''जब बुजुर्गों की दुआएं साथ रहती हैं
यूं लगे शीतल हवाएं साथ रहती हैं''
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जीवन जब से शुरू हुआ है तभी से संघर्ष उसके साथ जुड़ा हुआ है|
हरेक जीव अपने जीने के लिए संघर्ष करता है|
जीवन में आने का संघर्ष, जीवन को बचाने और अपने मुताबिक़ पूर्णत्व को पाने के साथ ही समाप्त होता है|
कुछ लोग जीवन के संघर्ष से दुखी हो कर तमाम उम्र रुआंसे रह जाते हैं तो कुछ अपने जीवन के संघर्ष में तप कर सोने के कुंदन हो जाने की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं और उनका जीवन एक मिसाल बन जाता है-दूसरों के लिए|
लगन और मेहनत से वे जीवन में ही बहुत कुछ हासिल कर लेते हैं|
सोन महाराज का जीवन भी कुछ ऐसा ही था| माँ-पिता के इकलौते पुत्र| लाड-प्यार में पले-बढे| राजस्थान के जिला जोधपुर-फलोदी-लोहावट में जन्मे मगर तकदीर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा ले आई|
तब पश्चिमी उड़ीसा का एक बड़ा हिस्सा छत्तीसगढ़ अर्थात दक्षिण कोसल का ही एक अंग था|
सोन महाराज उनका प्रचलित नाम था-पूरा नाम था सोहनलालजी शर्मा| घर के लोग सोनू कहते|
बड़े घरानों में मुनीम ब्राह्मण को महाराज कह कर बुलाया जाता है लिहाजा वे सोन महाराज के नाम से ही जाने गए|
बचपन से कुशाग्र बुद्धि थे और सहनशीलता,परोपकार,त्यागवृत्ति और सबसे दुर्लभ मानवीय गुण मैत्री समभाव उनके स्वभाव के आभूषण रहे| अपने इन्ही गुणों की बदौलत वे जहां भी रहे उन्होंने सम्मान हासिल किया और सर्वात्मीय बने रहे|
सोन महाराज के पिता अचलदासजी अपने जमाने के दबंग शिक्षक थे और राजस्थान में उनके पढाए हुए छात्र मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पंहुचे.. लेकिन शायद दीपक तले ही अन्धेरा रहता है|
पढने-लिखने में कुशल रहने के बावजूद परिस्थितियों ने ऐसा घेरा कि सोन महाराज कालेज की पढाई भी पूरी नहीं कर सके और विभाजन के दिनों में जब पूरे देश में उथल-पुथल थी, पूरा परिवार भीषण दुर्भिक्ष की चपेट में आ कर पलायन के लिए विवश हो गया|
सोन महाराज का पूरा कुनबा राजस्थान से रायपुर आ गया| घर पर कुल चार प्राणी| छोटी बहन नरबा और माता बलजीबाई| रायपुर आने के बाद अचलदासजी का कार्यक्षेत्र बदल गया| उनके भाई रिखबदासजी रायपुर की अनेक व्यापारिक फर्मों में मुनीम थे लिहाजा अपने भाई अचलदासजी का उन्होंने इसी लाईन में पुनर्वास करा दिया| शिक्षा क्षेत्र की पटरी से उखड़ कर अचलदासजी काम तो करते रहे मगर जम नहीं पाए| नतीजा यह हुआ कि सोन महाराज पर समय से पहले परिवार की जिम्मेदारी आ गयी|
विस्थापन के उस दौर में सोन महाराज बमुश्किल 10 बरस के रहे होंगे | रायपुर के हिन्दू हाई स्कूल में दाखिल जरूर हुए मगर कालेज तक नहीं पहुँच पाए|
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