एक दिन खत्म हो जाएंगे आदिवासी
गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
0 सरगुजा इलाके में करीब 15 हजार पहाड़ी कोरवा आदिवासी परिवार रहते हैं। इनकी जनसंख्या तेजी से घट रहीहै।
0 कोरवाओं के लिए निर्मित भवन में आरईएस (ग्रामीण लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी) का कब्जा था।
0 पहाड़ी कोरवा विकास प्राधिकरण को आवंटित राशि हितग्राहियों तक पहुंचती तो यह हादसा नहीं होता।
0 प्रभावित सरघापाठ ग्राम के नौ हैंडपंपों का पानी दूषित था। ये पंप मुख्यमंत्री के दौरे के बाद ठीक हुए।
0 कोरवा आदिवासी क्षेत्र में स्वीकृति के बावजूद पकरा टोली का भवन नहीं बन पाया। देवडांड में स्कूल तो है मगर शिक्षकों का अभाव है। रौनीघाट पहाड़ी के कोरवा बाहुल्य क्षेत्र में सड़क ही नहीं है।
सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद संरक्षित आदिवासियों की संख्या घटती जा रही है। हाल में सड़े आलू और दूसरी चीजें खाने से राज्य के करीब 35 कोरवा आदिवासी मौत के मुंह में चले गये।
छत्तीसगढ़ की विलुप्त होरही आदिवासी जनजाति पहाड़ी कोरवा समुदाय के 35 से अधिक आदिवासियों की मौतों ने इस जनजाति को संरक्षित किए जाने के राज्य और केंद्र सरकार के दावों पर सवालिया निशान लगा दिये हैं। झारखंड से लगे हुए जशपुर जिले के इन आदिवासियों की मौत के बाद भी उल्टी दस्त सी साधारण बीमारियों से मरने वाले इन संरक्षित आदिवासियों के पुनर्वास की स्थायी कोशिश नहीं हुई है जिससे भविष्य में भी ऐसी मौतों का खतरा बना हुआ है। प्रदेश में संरक्षित पांच जनजातियों की आबादी वर्ष 2002 में एक लाख 12 हजार थी।
पहाड़ी कोरवा छत्तीसगढ़ के पूर्वी हिस्से में पाये जाने वाले आदिवासियों की प्राचीन नस्ल है जिसका अपना रहन-सहन, सभ्यता और संस्कृति है। सरकार ने इस जनजाति के तेजी से खत्म होने के खतरे को देखते हुए इसे संरिक्षित सूची में रखा हुआ है। अमूमन छत्तीसगढ़ में अबूझमाड़िया, कमार, पहाड़ी दोखा, बिरहोर तथा बेंगा जनजातियों का बाहुल्य है। मगर तेजी से कटते जंगलों और बढ़ते शहरीकरण के कारण ये जनजातियां विलुप्त हो रही हैं। राज्य सरकार ने इन जनजातियों के उत्थान के लिए विशेष अभिकरण बना रखे हैं। पहाड़ी कोरवा विकास अभिकरण जशपुर एवं कोरबा में 120 गांव तथा पहाड़ी कोरवा विकास अभिकरण सरगुजा के तहत रायगढ़ व सरगुजा के 264 गांव शामिल हैं। कोरवा जड़ी-बूटी एकत्रित करते हैं।
जशपुर जिले के बगीचा और सन्ना इलाके में सबसे पहले एक साथ आठ आदिवासियों की मौत की खबर अगस्त के पहले हफ्ते में आई। इलाके में आलू की खेती के लिए बीज लगाने के काम में यह जनजाति लगी हुई थी। उन्होंने भूख लगने पर कुछ सड़े हुए आलू उबाल कर खा लिये। इसके बाद उल्टी-दस्त शुरू होने पर पर्याप्त चिकित्सा के अभाव में दो वर्षीय माहुल और 45 वर्षीय जगन्नाथ ने दम तोड़ दिया। इलाके में एक साथ आठ कोरवा आदिवासी चल बसे। इसी दौर में जशपुर से 80 किलोमीटर दूर दुर्गम इलाके में बसे देवडांड में एक ही परिवार के लोगों की मौतें स्थानीय अखबारों की सुर्खियां बनीं। मगर प्रशासन हरकत में नहीं आया। इसके बाद मनहई में भी दो पहाड़ी कोरवा उल्टी-दस्त के शिकार होकर चल बसे। बगीचा तहसील के बाजारडांड इलाके में भी उल्टी-दस्त से चार पहाड़ी कोरवा मारे गये। इन मौतों के बाद हल्ला मचने पर प्रशासन हरकत में आया और स्वास्थ्य सचिव आलोक शुक्ल ने इलाके की सुध ली मगर काम की तलाश में करोवाओं को मारे-मारे फिरते देखा जा सकता है।
लेकिन यह सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि महज संरक्षित घोषित कर देने भर से क्या आदिवासियों का भला हो सकता है? वनोपज के अभाव में आदिवासी सड़े हुए आलू खा रहे थे। इन आलुओं को किसान फेंक चुके थे। जाहिर है कि पेट की आग मिटाने के लिए कोरवा कुछ न कुछ तो खाएंगे ही। आखिरकार उनके विकास के लिए सरकारी एजेंसियां तैनात हैं मगर विकास के मद में आने वाला पैसा कोरवाओं तक पहुंच ही नहीं पाया।
नौ अगस्त को जब पूरी दुनिया जनजाति दिवस मना रही थी, तब कोरवा आदिवासी सड़े हुए आलू खाकर काल कवलित हो रहे थे। इस मौसम में अनाज के अभाव में कोरवा पके हुए कटहल, सड़े आलू और जहरीले कंद-मूल पर निर्भर हो जाते हैं।
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