वही अर्जुन, वही बाण
बुधवार, 9 मार्च 2011
नब्बे के दशक में दिल्ली की पत्रकारिता के उन दिनों में अर्जुन सिंह बहुत बड़ी शख्सियत थे जब अपन ऐसे नेताओं के इंटरव्यू कर के ही खुद को गदगद रखते थे| कुछ संस्मरण हैं| उनके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि वे सस्ती लोकप्रियता के टोटकों में कतई यकीन नहीं रखते थे और राजनीति में शालीन रह कर भी विरोधी की काट की जा सकती है यह शैली अर्जुन सिंह ने गढ़ी थी| उनमे राजनीति की जितनी समझ थी और हवा के रूख को पहचान कर अपने कदम तय करने का जितना बारीक (शार्प) हुनर था वह कई बड़े नेताओं के पास भी नही था जो नाम में उनसे आगे थे लेकिन अर्जुन सिंह ने उनको भी पीछे छोड़ दिया| एम्स के डाक्टर कृत्रिम प्रणालियों के सहारे कब तक उनको जीवित रख पाते| अब वे संस्मरणों के अर्जुन हैं और अर्जुन सिंह को जो जानते रहे हैं वे जानते हैं कि अर्जुन सचमुच इस इस राजनीति के महाभारत में अर्जुन थे और लक्ष्य पर उनकी नजर पैनी रहती थी| उनके तीर बेआवाज चलते थे और जिसे बेधते थे वह चारों खाने चित्त पड़ जाता था| जलवा जिसे कहते हैं वो अर्जुन सिंह ने जमाया और एक वो दौर भी था जब अर्जुन सिंह की नजर से सारे बड़े फैसले हो जाया करते थे| उस दौर में अर्जुन सिंह के तर्क से राजनीति में ताकत के मायने गढ़े जाते थे और उनकी चाल का मतलब होता था सफलता की गारंटी| नब्बे के दशक में कई पत्रकार उनके इस कदर भक्त थे कि हर राजनीतिक खबर के केंद्र में होते थे अर्जुन सिंह और जो खबर बनती थी वह बताती थी कि एक शख्स ऐसा भी है जो बैठा तो मध्य प्रदेश में है मगर उससे दिल्ली के दिग्गज भी डरते हैं| अर्जुन सिंह से बड़ा अर्जुन सिंह का प्रभा-मंडल था|फिर एक दौर ऐसा भी आया जब वे लोक सभा की टिकट से वंचित कर दिए गए और अपनी पुत्री को भी टिकट नहीं दिला पाए| समय का फेर था | इसीलिए लिखा गया है
नर बली नही होत है
समय होत बलवान
भीलन लूटी गोपियाँ
वही अर्जुन वही बाण
राजीव गांधी जब तक जीवित रहे अर्जुन सिंह सीढियां फलांगते गए| समस्या तब हुई जब राजीव नहीं रहे और नेता का नाम ले कर हर काम करते रहो वाली जिस शैली का सूत्रपात अर्जुनसिंह ने किया था वो चरमरा गयी| सीताराम केसरी और नरसिम्हा राव ने मिल कर अर्जुन के तीरों को ऐसा बोथरा किया कि अंततः उनको तिवारी कांग्रेस बनानी पडी और यहाँ भी अध्यक्ष नारायण दत्त तिवारी ही रहे| अपनी शैली से अर्जुन सिंह ने जितने मित्र बनाए उतने शत्रु भी, यही उनके लिए शायद गलत हुआ| हर बार उनकी राह काँटों से सजी रहती| उनकी इमेज एक घाघ लीडर की बन गयी जो कब किसको निपटा देगा इससे विरोधी भी घबराए रहते थे| उनने निपटाया भी|
एक उदाहरण याद आता है- उन दिनों वे सी एम् थे और शुक्ल बंधुओं से उनकी बिलकुल नहीं पटती थी| वे आए दिन छत्तीसगढ़ के दौरे पर आते| शुक्लजी कहते उनको तो रोटी भी नहीं पचती अगर यहाँ ना आएं तो..वगैरह- वगैरह.. और जब अर्जुन सिंह से पूछा जाता तो वे रहस्य से भरी अपनी मुस्कान व तीखी नजरों को ढके चश्मे से झांकते कहते "वे(शुक्लजी) तो बड़े नेता हैं आदरणीय हैं..." आदरणीय बोल-बोल कर के ऐसा पलीता लगाया कि कई घटनाएं अब कालखंड का हिस्सा भर हैं| उनके स्कूल आफ पॉलिटिक्स से सीखे लोग बाद में उनको ही पटकनी दे कर आगे निकल गए| मेरा मानना है कि अर्जुन सिंहजी में काबिलियत थी और वे और भी आगे जाते| राष्ट्रीय स्तर पर एक मौके पर उनने प्रूव किया जब पंजाब में लोंगोवाल समझौता कराया| इसके बाद वे विरोधियों से निपटने में ही ऊर्जा लगाते रहे| हमारे यहाँ रिवाज है कि दिवंगत होने के बाद व्यक्ति के बारे में अच्छा ही कहा जाता है लेकिन मैं पूरी विनम्रता के साथ उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव रखते हुए यह जरूर कहना चाहूँगा कि अर्जुन सिंह ने अपने शीर्ष काल में दिमाग से राजनीति ज्यादा की अगर वे दिल से करते तो शायद उनका फलक और बड़ा हो सकता था|
नर बली नही होत है
समय होत बलवान
भीलन लूटी गोपियाँ
वही अर्जुन वही बाण
राजीव गांधी जब तक जीवित रहे अर्जुन सिंह सीढियां फलांगते गए| समस्या तब हुई जब राजीव नहीं रहे और नेता का नाम ले कर हर काम करते रहो वाली जिस शैली का सूत्रपात अर्जुनसिंह ने किया था वो चरमरा गयी| सीताराम केसरी और नरसिम्हा राव ने मिल कर अर्जुन के तीरों को ऐसा बोथरा किया कि अंततः उनको तिवारी कांग्रेस बनानी पडी और यहाँ भी अध्यक्ष नारायण दत्त तिवारी ही रहे| अपनी शैली से अर्जुन सिंह ने जितने मित्र बनाए उतने शत्रु भी, यही उनके लिए शायद गलत हुआ| हर बार उनकी राह काँटों से सजी रहती| उनकी इमेज एक घाघ लीडर की बन गयी जो कब किसको निपटा देगा इससे विरोधी भी घबराए रहते थे| उनने निपटाया भी|
एक उदाहरण याद आता है- उन दिनों वे सी एम् थे और शुक्ल बंधुओं से उनकी बिलकुल नहीं पटती थी| वे आए दिन छत्तीसगढ़ के दौरे पर आते| शुक्लजी कहते उनको तो रोटी भी नहीं पचती अगर यहाँ ना आएं तो..वगैरह- वगैरह.. और जब अर्जुन सिंह से पूछा जाता तो वे रहस्य से भरी अपनी मुस्कान व तीखी नजरों को ढके चश्मे से झांकते कहते "वे(शुक्लजी) तो बड़े नेता हैं आदरणीय हैं..." आदरणीय बोल-बोल कर के ऐसा पलीता लगाया कि कई घटनाएं अब कालखंड का हिस्सा भर हैं| उनके स्कूल आफ पॉलिटिक्स से सीखे लोग बाद में उनको ही पटकनी दे कर आगे निकल गए| मेरा मानना है कि अर्जुन सिंहजी में काबिलियत थी और वे और भी आगे जाते| राष्ट्रीय स्तर पर एक मौके पर उनने प्रूव किया जब पंजाब में लोंगोवाल समझौता कराया| इसके बाद वे विरोधियों से निपटने में ही ऊर्जा लगाते रहे| हमारे यहाँ रिवाज है कि दिवंगत होने के बाद व्यक्ति के बारे में अच्छा ही कहा जाता है लेकिन मैं पूरी विनम्रता के साथ उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव रखते हुए यह जरूर कहना चाहूँगा कि अर्जुन सिंह ने अपने शीर्ष काल में दिमाग से राजनीति ज्यादा की अगर वे दिल से करते तो शायद उनका फलक और बड़ा हो सकता था|
6 comments:
बड़े-बड़े अर्जुन एक से मात खाजाते है, और वो है मौत....हालत...इस अर्जुन के साथ भी वही हुआ. खैर, लम्बे समय तक तो इनके तीर चलते ही रहे. छोटा मगर सटीक विश्लेषण
बहुत सुन्दर सटीक विश्लेषण| धन्यवाद|
अर्जुन सिंह जी के बारे जान कर बेहद अफ़सोस हुआ था ....
मेरेश्रद्धा-सुमन अर्पित हैं उन्हें ...
संस्मरण अच्छा लगा .....
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ पर आपके ब्लॉग पर आकर प्रसंता हुई जितनी तारीफ़ की जाय कम है ।
बहुत सुन्दर विश्लेषण|
हमारी शुभकामनाये आपके साथ है,
करीब जुड़े रहने वाले लोग, उनके अध्ययनशील होने और कम, नपा-तुला बोलने को याद करते हैं, राजनेता की दृष्टि और गुण-संपन्न व्यक्तित्व.
हमारे यहाँ रिवाज है कि दिवंगत होने के बाद व्यक्ति के बारे में अच्छा ही कहा जाता है ..!
और जब व्यक्ति जीवित होता है तो उसे तरह तरह के उल्हाने दिए जाते हैं ...आपका कहना सही है ..बहुत सुंदर विश्लेषण
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