आलोक तोमर का जाना
रविवार, 20 मार्च 2011
भारतीय पत्रकारिता की मौजूदा पीढी के चर्चित और जांबाज़ पत्रकार आदरणीय आलोक तोमर नहीं रहे, यह मनहूस खबर दोपहर 12 बजे अचानक मोबाईल पर आई| वे कैंसर से जूझ रहे थे और लगातार लिख कर बता भी रहे थे कि एक दिन कैंसर को जरूर हरा देंगे मगर अनहोनी ने ऐसा खेल खेला कि सहसा होली के रंग उड़ गए और अब यह कहने से भी गुरेज नहीं कि ऊपर वाले के यहाँ देर भी है और अंधेर भी है|
इस दुखद मौके पर 25 साल पुरानी स्मृतियों के पहाड़ से यादों के कई झरने फूट पड़े| 1986 में जनसत्ता दिल्ली के दफ्तर में एक वरिष्ठ के मार्फत जिस अनोखे शख्स से मिलने का मौक़ा मिला उनके सहज बर्ताव और बिंदास लेखनी ने प्रभावित किया| फिर तो ऐसा हुआ कि रोज शाम को जनसत्ता में अपन घूमते पाए जाते| चंद दिनों की मुलाक़ात में ही आलोकजी का स्नेह छोटे भाई पर बड़े भाई की तरह बरसता| वे मुझ जैसे कई स्ट्रगलरों के बड़े भाई थे|
मैं बताना चाहूँगा कि फुल-टाईम पत्रकारिता और पार्ट-टाईम ड्रामा के उन दिनों में मुझे नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के इंटरव्यू के लिए दिल्ली बुलाया गया था और मैं जा कर लद गया अपने शहर के वरिष्ठ के सिर| परेशानी की वजह थी कि इंटरव्यू होने थे 19 जुलाई 1986 को और मैं पहुचा 30 जुलाई को | मुझे काल लैटर ही देर से मिला| अपना इरादा तो संचार मंत्री से मिल कर डाक-तार वालों की शिकायत का था क्योंकि और कोई काम तो था नहीं दिल्ली में, इस मौके पर आलोकजी गाईड बन कर सामने आए| पहले तो मेरी नौसिखिया पत्रकार वाली संचार मंत्री से संभावित मुलाक़ात और फिर देश में डाक-क्रांति लाने की मंशा से उखड कर उनने ऐसा भाषण दिया कि आधा दिमाग दुरुस्त हो गया| फिर मैं रोज उनके लिए खबरों के टापिक बताने के लिए पहुँच जाता | मसलन चांदनी चौक चौराहे पर लगे सरकारी बोर्ड में हिन्दी की वर्तनी गलत है ...वगैरह- वगैरह.. एक छोटे से शहर से गए अनाडी पत्रकार का विजन इससे ज्यादा और क्या हो सकता था| खीजे हुए आलोकजी ने कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव सुरेश पचौरी के पास भेज कर मुझे एक चिट्ठी दिलवा दी जिसमे एन एस डी के निदेशक के लिए पत्र था| ताव खा कर मैंने अपने शहर के कई बड़े नेताओं से फोन भी करा दिए| मेरा स्पेशल इंटरव्यू हुआ मगर मैं धौंस के सहारे रंगमंच में जाना चाह रहा था लिहाजा इंटरव्यू में सबने मिल कर मुझे इतना रगड़ा कि एन एस डी में दुबारा मैं कभी नहीं गया और पत्रकारिता में ही कैरियर बनाने के इरादे से मैंने आलोकजी से यह भी कहा कि अब रायपुर किस मुंह से जाना| उनके सौजन्य से दिल्ली प्रेस में मेरा आवेदन जमा हुआ जहां उस दौर में वहाँ बगैर सिफारिश के नौकरी मिल जाती थी और एक लेख लिखने पर नौकरी पक्की| घंटे भर में अपन ने तो दो लेख लिख दिए थे |
दिल्ली प्रेस से पीछा छूटते ही अपन भी महानगरीय जीवन में ऐसे रमे कि कब आलोकजी जनसत्ता छोड़ गए और एक धूमकेतू की तरह हिन्दी बैल्ट पर छा जाने वाले पत्रकार को आगे चल कर गर्दिशों के दौर से भी गुजरते देख समय-भाग्य के फेर पर विश्वास करने की मजबूरी रही | मुलाक़ात होती मगर कैरियर की मुश्किल घड़ी में| आलोकजी मदद के लिए तत्पर रहते| उनका स्वभाव नहीं बदला | वे दूसरों से इस मायने में भी अलग थे कि दिल्ली में भी उनका शहर उनके सीने में धडकता रहा| छोटों से स्नेह से मिलते| वे खरा बोलते और खरा लिखते| डरना तो शायद सीखा ही नहीं|
छोटी-मोटी शायरियाँ/कविताएँ डायरी में लिए चलने के उन दिनों में मैंने कहीं से उडाई हुई एक कविता उनको सुनाई..
मुझको दीपक सा जलना है
आलोक सभी को देना है.
जग कह दे दीपक खूब जला
बस और मुझे क्या लेना है.
आलोकजी ने कविता पसंद की मगर कहा कि "जग के कहने की कोई परवाह नहीं होनी चाहिए| जग के कहने के लिए जलेंगे?"
वे जमीन से जुड़े हुए थे और दिल्ली की कृत्रिमता उनके व्यक्तित्व में नहीं आ पाई| जिसे कैंसर हो जाए वो इलाज में ही आधा हो जाता है मगर यह आलोकजी का ही कलेजा था कि उनने इस पर भी जम कर लिखा और इस रोग के इलाज के नाम पर जो धंधेबाजी चल रही है उसकी तरफ भी सबका ध्यान खींचा |
उनकी मौत कैंसर से नहीं बल्कि दिल के दौरे से हुई| कैंसर को तो वे लगभग परास्त कर चुके थे| मरना तो सबको एक दिन है मगर यह साक्षात देखा कि मौत को सामने देख कर भी जो हौसला ना खोए वह आलोक तोमर ही हो सकते हैं| लेखक के रूप में आलोकजी एक रोल माडल बन गए थे| हाल के दिनों में उनने तथ्यों के साथ बड़े-बड़ों की बखिया उधेड़ डाली| उनकी अलग शैली थी| उनने सच बोलने के खतरे उठाए| कार्टून विवाद में जेल भी गए मगर झुके नहीं| मैं उनकी स्मृतियों को प्रणाम करता हूँ और सुप्रिया सहित परिवार के लिए के लिए प्रार्थना कि वे इस दारुण दुःख की घड़ी को सहन कर सकें|
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इस दुखद मौके पर 25 साल पुरानी स्मृतियों के पहाड़ से यादों के कई झरने फूट पड़े| 1986 में जनसत्ता दिल्ली के दफ्तर में एक वरिष्ठ के मार्फत जिस अनोखे शख्स से मिलने का मौक़ा मिला उनके सहज बर्ताव और बिंदास लेखनी ने प्रभावित किया| फिर तो ऐसा हुआ कि रोज शाम को जनसत्ता में अपन घूमते पाए जाते| चंद दिनों की मुलाक़ात में ही आलोकजी का स्नेह छोटे भाई पर बड़े भाई की तरह बरसता| वे मुझ जैसे कई स्ट्रगलरों के बड़े भाई थे|
मैं बताना चाहूँगा कि फुल-टाईम पत्रकारिता और पार्ट-टाईम ड्रामा के उन दिनों में मुझे नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के इंटरव्यू के लिए दिल्ली बुलाया गया था और मैं जा कर लद गया अपने शहर के वरिष्ठ के सिर| परेशानी की वजह थी कि इंटरव्यू होने थे 19 जुलाई 1986 को और मैं पहुचा 30 जुलाई को | मुझे काल लैटर ही देर से मिला| अपना इरादा तो संचार मंत्री से मिल कर डाक-तार वालों की शिकायत का था क्योंकि और कोई काम तो था नहीं दिल्ली में, इस मौके पर आलोकजी गाईड बन कर सामने आए| पहले तो मेरी नौसिखिया पत्रकार वाली संचार मंत्री से संभावित मुलाक़ात और फिर देश में डाक-क्रांति लाने की मंशा से उखड कर उनने ऐसा भाषण दिया कि आधा दिमाग दुरुस्त हो गया| फिर मैं रोज उनके लिए खबरों के टापिक बताने के लिए पहुँच जाता | मसलन चांदनी चौक चौराहे पर लगे सरकारी बोर्ड में हिन्दी की वर्तनी गलत है ...वगैरह- वगैरह.. एक छोटे से शहर से गए अनाडी पत्रकार का विजन इससे ज्यादा और क्या हो सकता था| खीजे हुए आलोकजी ने कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव सुरेश पचौरी के पास भेज कर मुझे एक चिट्ठी दिलवा दी जिसमे एन एस डी के निदेशक के लिए पत्र था| ताव खा कर मैंने अपने शहर के कई बड़े नेताओं से फोन भी करा दिए| मेरा स्पेशल इंटरव्यू हुआ मगर मैं धौंस के सहारे रंगमंच में जाना चाह रहा था लिहाजा इंटरव्यू में सबने मिल कर मुझे इतना रगड़ा कि एन एस डी में दुबारा मैं कभी नहीं गया और पत्रकारिता में ही कैरियर बनाने के इरादे से मैंने आलोकजी से यह भी कहा कि अब रायपुर किस मुंह से जाना| उनके सौजन्य से दिल्ली प्रेस में मेरा आवेदन जमा हुआ जहां उस दौर में वहाँ बगैर सिफारिश के नौकरी मिल जाती थी और एक लेख लिखने पर नौकरी पक्की| घंटे भर में अपन ने तो दो लेख लिख दिए थे |
दिल्ली प्रेस से पीछा छूटते ही अपन भी महानगरीय जीवन में ऐसे रमे कि कब आलोकजी जनसत्ता छोड़ गए और एक धूमकेतू की तरह हिन्दी बैल्ट पर छा जाने वाले पत्रकार को आगे चल कर गर्दिशों के दौर से भी गुजरते देख समय-भाग्य के फेर पर विश्वास करने की मजबूरी रही | मुलाक़ात होती मगर कैरियर की मुश्किल घड़ी में| आलोकजी मदद के लिए तत्पर रहते| उनका स्वभाव नहीं बदला | वे दूसरों से इस मायने में भी अलग थे कि दिल्ली में भी उनका शहर उनके सीने में धडकता रहा| छोटों से स्नेह से मिलते| वे खरा बोलते और खरा लिखते| डरना तो शायद सीखा ही नहीं|
छोटी-मोटी शायरियाँ/कविताएँ डायरी में लिए चलने के उन दिनों में मैंने कहीं से उडाई हुई एक कविता उनको सुनाई..
मुझको दीपक सा जलना है
आलोक सभी को देना है.
जग कह दे दीपक खूब जला
बस और मुझे क्या लेना है.
आलोकजी ने कविता पसंद की मगर कहा कि "जग के कहने की कोई परवाह नहीं होनी चाहिए| जग के कहने के लिए जलेंगे?"
वे जमीन से जुड़े हुए थे और दिल्ली की कृत्रिमता उनके व्यक्तित्व में नहीं आ पाई| जिसे कैंसर हो जाए वो इलाज में ही आधा हो जाता है मगर यह आलोकजी का ही कलेजा था कि उनने इस पर भी जम कर लिखा और इस रोग के इलाज के नाम पर जो धंधेबाजी चल रही है उसकी तरफ भी सबका ध्यान खींचा |
उनकी मौत कैंसर से नहीं बल्कि दिल के दौरे से हुई| कैंसर को तो वे लगभग परास्त कर चुके थे| मरना तो सबको एक दिन है मगर यह साक्षात देखा कि मौत को सामने देख कर भी जो हौसला ना खोए वह आलोक तोमर ही हो सकते हैं| लेखक के रूप में आलोकजी एक रोल माडल बन गए थे| हाल के दिनों में उनने तथ्यों के साथ बड़े-बड़ों की बखिया उधेड़ डाली| उनकी अलग शैली थी| उनने सच बोलने के खतरे उठाए| कार्टून विवाद में जेल भी गए मगर झुके नहीं| मैं उनकी स्मृतियों को प्रणाम करता हूँ और सुप्रिया सहित परिवार के लिए के लिए प्रार्थना कि वे इस दारुण दुःख की घड़ी को सहन कर सकें|
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5 comments:
मैंने अलोक जी के लेख पड़े है सच में उनके कुछ लेख बड़े कागज वाले भी नहीं छाप सकते
एक दबंग सितारा खो गया
ईश्वर उन की आत्मा को शांति प्रदान करे
दुखद समाचार. आलोक जी से एक-दो बार मेरी भी संक्षिप्त मुलाकात हुई. काफी धीर-गंभीर स्वभाव और प्रखर -लेखनी के धनी थे. सम-सामयिक विषयों पर उनकी गहरी पकड़ थी. उनमें काफी संभावनाएं थीं . उम्र के सिर्फ पचासवें वसंत में ही उनका अचानक चले जाना हम सबके लिए एक हादसे की तरह है. अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि. उनके शोक-संतप्त परिवार के प्रति हार्दिक संवेदना .
आलोक तोमर पर लिखना ज़रूरी था. वे ऐसे विरल पत्रकार थे, जो अपने मौलिक मुहावरों के साथ हिंदी पत्रकारिता में आये थे.प्रभाष जोशी की खोज थे आलोक. मेरे भी मित्र थे. और अनेक मुलाकातों में हम लोगों ने पत्रकारिता पर गंभीर चर्चाएँ भी की थी. आलोक के तेवर अलग किस्म के थे. ऐसे पत्रकार अब नज़र नहीं आते. तुमने अलोक से जुड़े अन्तरंग संस्मरण लिख कर अपना फ़र्ज़ निभाया है. आलोक को अतिम प्रणाम.
आलोक जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
ईश्वर उनके परिजनों एवं मित्रों को दारुण दुख: सहने की शक्त्ति प्रदान करे।
विनम्र श्रद्धांजलि.
पंकज.
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