46 साल पहले ऐसे बनी थी - कही देबे सन्देश
शनिवार, 6 अगस्त 2011
'कही देबे संदेस' (सन्देश कह देना) का नाम तो मैने बचपन से बहुत सुना पर देख नहीं पाया.
अपने-आप में एक मिसाल यादगार - कही देबे संदेस छत्तीसगढ़ की पहली फिल्म अप्रैल 1965 में रिलीज हुई जिसके निर्माता निर्देशक छत्तीसगढ़िया फिल्मो के भीष्म मनु नायक उस दौर में सोचते थे कि इस माटी का कर्ज भी कला- संस्कृति के जरिये उतारें.
उनसे सहज मुलाक़ात हुई और बातचीत में यादों के दरीचे खुलते चले गए और एक संघर्षशील क्षेत्रीय सिनेमाई इतिहास में झांकने जैसा सुखद- कोफ्तप्रद अनुभव हुआ.
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म "कहि देबे संदेश" को बने हुए आज 46 साल पूरे हो चुके है. छत्तीसगढ़ी फिल्में तो बहुत बन रही हैं पर जो बात कहि देबे संदेश जैसी उस दौर की फिल्मों में हुआ करती थी, वो आज कहीं नहीं दिखाई देती। उस फिल्म के मनु नायक से मिलना अतीत के उस दौर को याद करके एक एहसास से गुजरना रहा है जिस दौर में फिल्मे स्वर्ण काल के स्वप्निल प्रेमिल शीर्ष पर आईं और आज बारह महीने में बारह तरीके से प्यार जता रही हैं.
16 अप्रैल 1965 को फिल्म को तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने भी देखी थी-कहि देबे संदेस जो एक मील का पत्थर साबित हुई और आज पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने वाले मनु नायक को छत्तीसगढ़ में के दादा साहब फालके और राज कपूर सरीखा सम्मान हासिल है। फिल्म बनते वक्त कई उतार-चढ़ावों से गुजरी । छूआछूत के खिलाफ प्रेम का संदेश इस फिल्म का मूल कथ्य रहा है जिसकी गूंज दिल्ली मे भी हुई क्योंकि उस दौर मे एक जकड़े हुए रूढ़िग्रस्त समाज में ये सब वर्जित माना जाता था . विरोधों की वजह से फिल्म का खूब प्रचार हुआ। मिसेज गांधी ने फिल्म देखी और फिल्म की जम कर तारीफ की.फिल्म टैक्स फ्री हो गयी मगर बॉक्स आफिस का गणित मनुजी हल नही कर सके.
फिल्म में बतौर नायक कान मोहन लिए गए जो पहली सिंधी फिल्म अबाना के नायक थे। कान मोहन ने बखूबी छत्तीसगढ़ी संवाद रटे । हीरोइन उमा थीं जो राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म दोस्ती में आईं थीं। एक अन्य नायिका सुरेखा ख्वाजा अहमद अब्बास की हिट फिल्म शहर और सपना की हीरोइन थीं।
ख़ास यह है कि फिल्म में आला दर्जे के गायक मोहम्मद रफी, महेंद्र कपूर, सुमन कल्याणपुर व मीनू पुरुषोत्तम ने स्वर दिए। रफी साहब ने दो गाने "झमकत नदिया हिनी लागे परबत मोर मितान" (मितान मायने दोस्त) तथा तोर पैरी (पायल)के झनर-झनर.. तोर चूरी(चूड़ी) के खनर-खनर ..और
मूल गीत ..दुनिया के मन आघू बढ़गे
चन्दा तक माँ जाए रे
कही देबे सन्देश सबो ला
कौनो नई पछुवाए रे ..
आकाशवाणी की मेहरबानी से आज भी बजते है। फिल्म में प्रमुख रोल में रमाकांत बख्शी भी थे.संगीतकार मलय चक्रवर्ती और गीतकार – डा.एस.हनुमंत नायडू थे. मुंबई में गीत रिकार्ड करवाए गए. दीगर कलाकारों में सुरेखा पारकर, उमा राजु, कानमोहन, कपिल कुमार, दुलारी, वीना, पाशा, सविता, सतीश, टिनटिन और साथ में नई खोज कमला, रसिकराज, विष्णुदत्त वर्मा, फरिश्ता, गोवर्धन, सोहनलाल, आरके शुक्ल, बेबी कुमुद,अरूण, कृष्णकुमार,बेबी केसरी भी थे.
फिल्म का टाईटल इस प्रकार था. संकलन – मधु अड़सुले, सहायक – प्रेमसिंग,वेशभूषा – जग्गू, रंगभूषा – बाबू गणपत, सहायक – किशन,
स्थिर चित्रण – आरवी गाड़ेकर, श्री गुरूदेव स्टूडियो.छाया अंकन – के.रमाकांत, सहायक – बी.के.कदम रसायन क्रिया – बाम्बे फिल्म लेबोरेटरीज प्रा.लिमिटेड, दादर प्रोसेसिंग इंचार्ज – रामसिंग प्रचार सामग्री व परिचय लेखन – काठोटे, भारती चित्र मंदिर रायपुर निर्माण व्यवस्था – बृजमोहन पुरी प्रचार अधिकारी – रमण नृत्य – सतीशचंद्र ध्वनि आलेखन – त्रिवेदी साऊंड सर्विस गीत आलेखन – कौशिक व बीएन शर्मा पार्श्वगायन – मोहम्मद रफी, मन्ना डे, महेंद्र कपूर, मुबारक बेगम,मीनू पुरूषोत्तम, सुमन कल्यानपुर गीत – राजदीप संगीत – मलय चक्रवर्ती, सहायक – प्रभाकर सह निर्देशक – बाल शराफ और लेखक, निर्माता, निर्देशक – मनु नायक.
गीतकार डॉ.एस.हनुमंत नायडू राजदीप की पंक्तियां थी -
‘भिलाई तुंहर काशी हे
ऐला जांगर के गंगाजल दौ,
ऐ भारत के नवा सुरूज हे
इन ला जुर मिल के बल दौ,
तुंहर पसीना गिरै फाग मा
नवा फूल मुस्काए रे’
शुरू मे फ़िल्म मे सुप्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद रचित महाकाव्य ‘कामायनी’ की पंक्ति निर्माता-निर्देशक मनु नायक की आवाज में गूंजती है -
इस पथ का उद्देश्य नहीं है
श्रांत भवन में टिक रहना,
किंतु पहुंचना उस सीमा तक
जिसके आगे राह नहीं है
सवा (1.25) लाख रुपए मे पूरी फ़िल्म बन गई और 27 दिन में इस का निर्माण पूरा हो गया. 16 अप्रैल 1965 को इसे प्रदर्शित किया गया. आजकल सालों-साल फिल्मे बनती हैं मगर इस फिल्म की शूटिंग सिर्फ 22 दिन पलारी में की गयी ।
मनुजी निर्माता महेश कौल के सहायक रहे है. वे उनको आज भी गुरू मानते है.
सपनों का सौदागर गोपीनाथ, हम कहां जा रहे हैं, मुक्ति, दीवाना, प्यार की प्यास, तलाक और पालकी जैसी सुपरहिट फिल्में देने वाले कश्मीरी मूल के फिल्मकार महेश कौल का रायपुर से भी नाता था। महेश कौल को जब फिल्म का पता चला तो उनका कहना था कि क्षेत्रीय फिल्मों का मार्केट छोटा है इसकी लागत भी नहीं निकलेगी मगर नायक ज़िद पर थे, उन्होंने फिल्म ही नहीं बनाई वरन् उसके माध्यम से छत्तीसगढ़ के लोगों को एक संदेश भी दिया था। पटकथा लेखक पं.मुखराम शर्मा के साथ व्यवसायिक साझेदारी में अनुपम चित्र में मुलाजिम भी थे मनु नायक। काम था प्रोडक्शन से लेकर अकाउंट तक सम्हालना .
दरअसल 62 मे पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ की रिकार्ड तोड़ सफलता ने मनु नायक को भी प्रेरित किया कि वे भी छत्तीसगढ़ी में फिल्म बनाएं. एक राममूर्ति चतुर्वेदी भी वहां थे . एक दिन सब जश्न मना रहे थे. उनसे पूछा तो पता चला कि गंगा मैया .. सुपर हिट हो गयी है. अब रीजनल फिल्म का सबको बुखार चढ़ गया. ताव में आ कर मनुजी ने अनाउंस कर दिया कि वे भी फिल्म बना रहे हैं. यह खबर सब फ़िल्मी अखबारों में लगी और टाईम्स आफ इंडिया में भी छप गयी. कई दिन उहापोह में बीते. सवाल था फाईनेंस का . जो ब्रोकर लोग अनुपम को फिनांस करते थे उन्होंने मनुजी की ईमानदारी देखी थी, उनको 5000 रूपये बिना ब्याज पेशगी दे दिए .
न कोई कहानी थी न कोई टीम, बस एक धुन थी जो रातों में पीछा करती.
सलीम (सलमान खान के पिता ) भी तब मुम्बई में जमने की कोशिश में थे, उनसे बात हुई बाकायदा उनको हीरो ले कर 501 रूपये साईनिंग अमाउंट दे दिए गए. बाद में फिल्म डिले हुई तो सलीम किसी और शूटिंग में रम गए वरना वे कही देबे के हीरो बनते. साईनिंग अमाउंट लौटाने का तो सवाल ही नही था. उनने कहा कि पैसे आएंगे तो लौटा दूंगा. अन्य कलाकारों में सुरेखा के पिता ने संपर्क किया. उनको भी 501 दे कर साईन कर लिया.
कैफ़ी आजमी से स्क्रिप्ट की बात तो हुई . फारुखी साब एक थे उनकी मदद मिली. मगर बात नही बनी, उनको दिलचस्पी ही नही थी. उनका घर भी दूर था. कई लेखकों के चक्कर लगे. गाना लिखवाने बिलासपुर आना हुआ. खुद एक पटकथा लिखी. हनुमंत नायडू साथ थे यहां. द्वारका प्रसाद तिवारी का नाम तय हुआ और विमल कुमार पाठक का, गीत के लिए मगर बात जम नही पाई. ये बात है सन 62 की। तब लाईट भी नही हुआ करती थी. फिल्म बनेगी इसे ले कर कई मोर्चों पर संशय थे, गीत लिखने पर गफलत भी हुई क्योंकि फिल्म में सिचुएशन पर गीत लिखे जाते हैं और एक लेखकजी ने कह दिया -" देख बाबू
मोर मूड जोन डाहर ले जाथे तो मंय लिखथों .
अइसे में कभो नई कर पाओं ",
फिर बैरंग रायपुर लौट कर नायडूजी से बात हुई और तय हुआ वे गीत लिखें, कोई संपादन हुआ तो मैं करूंगा, उस दौर में लिखा गया -
परबत मोर मितान हवे
मय बेटा हों ये धरती के....
स्वर्गीय बसंत दीवान और परमार (?) का भी पूरा सहयोग मिला.
फिल्म शुरू हुई आख़िरकार . रायपुर में खपरा भट्ठी के पास रामाधार चंद्रवंशी के निवास पर अपनी पूरी टीम को ठहराया और टहलते हुए बस स्टैंड की तरफ निकले जहां मुलाक़ात पलारी से तत्कालीन कांग्रेस विधायक स्वर्गीय बृजलाल वर्मा से हो गई। चूंकि उन दिनों मनु नायक और उनकी पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म के बारे में काफी कुछ छप रहा था लिहाजा वर्मा ने पैदल चले जा रहे मनु नायक को रोका और हालचाल पूछा। जब नायक ने अपनी दुविधा बताई तो उन्होंने तुरंत सारी व्यवस्था करने एक चिट्ठी अपने भाई तिलक दाऊ के नाम लिख दी। बातों-बातों में श्री वर्मा ने एक प्रस्ताव भी रख दिया कि पूरी फिल्म की शूटिंग पलारी में होगी और यह सुविधा भी दे दी कि महिलाओं के लिए उनके घर के पुश्तैनी गहने इस्तेमाल किए जाएंगे।
मुहूर्त शॉट रायपुर के विवेकानंद आश्रम में लिया गया.
इस फिल्म में मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर, मीनू पुरूषोत्तम और महेंद्र कपूर ने भी गाने गाए लेकिन जब रफी साहब ने बेहद मामूली रकम लेकर मेरी हौसला अफज़ाई की तो उनकी इज्जत करते हुए इन दूसरे सारे कलाकारों ने भी उसी अनुपात में अपनी फीस घटा दी।
सीमित खर्च में फिल्म पूरी करना बेहद कठिन था। पाकिस्तान के साथ युद्ध की वजह से आपातकाल के चल्ते कच्ची फिल्म की विदेश से आपूर्ति नहीं हो रही थी और भिलाई इस्पात संयंत्र को सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील मानते हुए इसके आस-पास फोटोग्राफी या शूटिंग पर उन दिनों भारत सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था। वैन में परदा डाल कर चोरी छिपे भिलाई के शॉट्स लिए।मुबारक बेगम स्टूडियो पहुंची और रिहर्सल भी की। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। उनकी आवाज में यह गाना जम भी रहा था। लेकिन दिक्कत आ रही थी महज एक शब्द के उच्चारण को लेकर। गीत में जहां ‘राते अंजोरिया’ शब्द है उसे वह रिहर्सल में ठीक उच्चारित करती थीं लेकिन पता नहीं क्यों जैसे ही रिकार्डिंग शुरू करते थे वह ‘राते अंझुरिया’ कह देती थीं। इसमें हमारी पूरी-पूरी एक शिफ्ट का नुकसान हो गया। उस रोज पूरे छह घंटे में मुबारक बेगम से ‘अंजोरिया’ नहीं हुआ वह ‘अंझुरिया’ ही रहा। अंतत: हमनें अनुबंध की शर्त के मुताबिक उनका और सारे साजिंदों व तकनीशियनों का भुगतान किया और अगले ही दिन सुमन कल्याणपुर को अनुबंधित कर उनकी आवाज में यह विदाई गीत रिकार्ड करवाया। चूंकि हम एचएमवी से पहले ही अनुबंध कर चुके थे, ऐसे में गीत न गवाने के बावजूद मुबारक बेगम का नाम टाइटिल में हमें देना पड़ा, 14 अप्रैल 1965 को फिल्म रिलीज हुई दुर्ग की प्रभात टाकीज में। फिल्म का प्रीमियर होना था रायपुर के मनोहर टॉकीज में (जो बाद में शारदा हुई और अब खंडहर बन गयी है) लेकिन कतिपय विवाद के चलते टॉकीज के प्रोप्राइटर ने अनुबंध के बावजूद दो दिन पहले ही फिल्म के प्रदर्शन की मनाही कर दी।
14 अप्रैल 1965 को फिल्म रिलीज हुई दुर्ग की प्रभात टाकीज में।
दुर्ग में यह फिल्म बिना किसी विवाद के चली, फिर इसे भाटापारा में रिलीज किया गया और सारे विवादों के निपटारे के बाद जब फिल्म टैक्स फ्री हो गई तो रायपुर के राजकमल (आज की शानदार राज टॉकीज) में प्रदर्शित हुई।
फिल्म नही चलने का कारण आज वे मानते हैं हास्टल में, फैमिली में रामायण देखने का ज़माना था, फिल्मे वर्जित थीं. बिजली नही थी . प्रचार के साधन नही थे,
11 जुलाई 1937 को रायपुर तहसील के कुर्रा गांव-तिल्दा तहसील में जन्मे नायक 1957 में सपने लिए मुंबई चले गए.
नायक ने रेहाना सुल्ताना और काजोल की माँ तनूजा की सेक्रेट्रीशिप भी की है . वे आज भी सक्रिय-सेहतमंद हैं, उनको हार्दिक शुभ कामना ।
अब बॉक्स आफिस के गणित का नही इलाके के फ़िल्मी इतिहास का शिखर बन गयी है कही देबे सन्देश और यह एक विचित्र सा सत्य है कि जो फिल्म टैक्स फ्री हो कर बॉक्स आफिस का गणित हल नही कर पाती हैं वे ही इतिहास में क्यों कर दर्ज हो जाती हैं. मनु नायक ने बाद में दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘पठौनी’ की भी घोषणा की थी। लेकिन यह फिल्म नहीं बन पाई। शायद कोई संयोग जमे, कुछ साथी हाथ बढ़ाएं .
चंद फिल्में करने के बाद लोग खुद को सुपर स्टार, खलनायक समझने लगते हैं और फिल्म निर्माता खुद को शो मेन मगर मनु नायक आज भी जमीन से जुड़े हैं सादगी और नफासत के साथ. ‘पठौनी’ बने, इसके लिए हमारी शुभकामना है.
इन 46 वर्षों में 50 से ज्यादा छत्तीसगढ़ी फिल्मों का निर्माण हुआ है । घर-द्वार, मोर छइयां-भुइयां, झन भूलो मां-बाप ला, , मयारू भउजी , परदेसी के मया , बनिहार , कारी ,मया ,मया देदे मया ले ले, हीरो नं.-1 इत्यादि फ़िल्मे याद रखी गई है. मगर औसत हर महीने फ्लोर पर आने वाली फिल्मो में कहानी के नाम पर नकल, छत्तीसगढ़ी भाषा के नाम पर हिन्दी,अंग्रेजी की मिक्स खिचड़ी और सस्ते संवाद के कारण छत्तीसगढ़ी बोली की संगीतमय अपनत्व भरी मिठास मजाक बन गई है.यह भी आशा है कि अब फिर से कोई कही देबे सन्देश जैसा सन्देश जरूर आएगा. यहां फिल्में बनना शुरु हुईं और बनती रहीं लेकिन हमने ध्यान नहीं दिया ! सास गारी देती रह गयी और सारी को मुम्बईया नकलची बन्दर ले उड़ा है.
मनु नायक का संपर्क सूत्र है-
-4बी/2, फ्लैट-34, वर्सोवा व्यू को-आपरेटिव सोसायटी, 4 बंगला-अंधेरी, मुंबई-53
मोबाइल : 098701-07222.
मनुजी से बात कर के लगा कि छतीसगढ़ का फिल्म संसार समृद्ध रहा है जिसे आजकल टपोरी-टाईप लेखन -निर्देशन लीड कर रहा है
मुझे क्षेत्रीय फ़िल्में देखना हिन्दी -अंग्रेजी फ़िल्म देखने से ज्यादा अच्छा लगता है. डायलॉग समझ नही आते मगर गाने-सीन समझ आ जाते है.क्षेत्रीय फ़िल्में अपने देश की विविध संस्कृति को बताती हैं और दूसरों के कल्चर में भी इंसानियत, प्रेम, त्याग, अच्छाई-बुराई सब तो एक जैसी ही होती है.
स्त्रोत सन्कलन साभार : http://cgsongs.wordpress.com.
(नीचे तस्वीर में मनुजी के संग श्री स्वराज करुण और डा.परदेसीराम वर्मा भी हैं.)
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अपने-आप में एक मिसाल यादगार - कही देबे संदेस छत्तीसगढ़ की पहली फिल्म अप्रैल 1965 में रिलीज हुई जिसके निर्माता निर्देशक छत्तीसगढ़िया फिल्मो के भीष्म मनु नायक उस दौर में सोचते थे कि इस माटी का कर्ज भी कला- संस्कृति के जरिये उतारें.
उनसे सहज मुलाक़ात हुई और बातचीत में यादों के दरीचे खुलते चले गए और एक संघर्षशील क्षेत्रीय सिनेमाई इतिहास में झांकने जैसा सुखद- कोफ्तप्रद अनुभव हुआ.
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म "कहि देबे संदेश" को बने हुए आज 46 साल पूरे हो चुके है. छत्तीसगढ़ी फिल्में तो बहुत बन रही हैं पर जो बात कहि देबे संदेश जैसी उस दौर की फिल्मों में हुआ करती थी, वो आज कहीं नहीं दिखाई देती। उस फिल्म के मनु नायक से मिलना अतीत के उस दौर को याद करके एक एहसास से गुजरना रहा है जिस दौर में फिल्मे स्वर्ण काल के स्वप्निल प्रेमिल शीर्ष पर आईं और आज बारह महीने में बारह तरीके से प्यार जता रही हैं.
16 अप्रैल 1965 को फिल्म को तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने भी देखी थी-कहि देबे संदेस जो एक मील का पत्थर साबित हुई और आज पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने वाले मनु नायक को छत्तीसगढ़ में के दादा साहब फालके और राज कपूर सरीखा सम्मान हासिल है। फिल्म बनते वक्त कई उतार-चढ़ावों से गुजरी । छूआछूत के खिलाफ प्रेम का संदेश इस फिल्म का मूल कथ्य रहा है जिसकी गूंज दिल्ली मे भी हुई क्योंकि उस दौर मे एक जकड़े हुए रूढ़िग्रस्त समाज में ये सब वर्जित माना जाता था . विरोधों की वजह से फिल्म का खूब प्रचार हुआ। मिसेज गांधी ने फिल्म देखी और फिल्म की जम कर तारीफ की.फिल्म टैक्स फ्री हो गयी मगर बॉक्स आफिस का गणित मनुजी हल नही कर सके.
फिल्म में बतौर नायक कान मोहन लिए गए जो पहली सिंधी फिल्म अबाना के नायक थे। कान मोहन ने बखूबी छत्तीसगढ़ी संवाद रटे । हीरोइन उमा थीं जो राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म दोस्ती में आईं थीं। एक अन्य नायिका सुरेखा ख्वाजा अहमद अब्बास की हिट फिल्म शहर और सपना की हीरोइन थीं।
ख़ास यह है कि फिल्म में आला दर्जे के गायक मोहम्मद रफी, महेंद्र कपूर, सुमन कल्याणपुर व मीनू पुरुषोत्तम ने स्वर दिए। रफी साहब ने दो गाने "झमकत नदिया हिनी लागे परबत मोर मितान" (मितान मायने दोस्त) तथा तोर पैरी (पायल)के झनर-झनर.. तोर चूरी(चूड़ी) के खनर-खनर ..और
मूल गीत ..दुनिया के मन आघू बढ़गे
चन्दा तक माँ जाए रे
कही देबे सन्देश सबो ला
कौनो नई पछुवाए रे ..
आकाशवाणी की मेहरबानी से आज भी बजते है। फिल्म में प्रमुख रोल में रमाकांत बख्शी भी थे.संगीतकार मलय चक्रवर्ती और गीतकार – डा.एस.हनुमंत नायडू थे. मुंबई में गीत रिकार्ड करवाए गए. दीगर कलाकारों में सुरेखा पारकर, उमा राजु, कानमोहन, कपिल कुमार, दुलारी, वीना, पाशा, सविता, सतीश, टिनटिन और साथ में नई खोज कमला, रसिकराज, विष्णुदत्त वर्मा, फरिश्ता, गोवर्धन, सोहनलाल, आरके शुक्ल, बेबी कुमुद,अरूण, कृष्णकुमार,बेबी केसरी भी थे.
फिल्म का टाईटल इस प्रकार था. संकलन – मधु अड़सुले, सहायक – प्रेमसिंग,वेशभूषा – जग्गू, रंगभूषा – बाबू गणपत, सहायक – किशन,
स्थिर चित्रण – आरवी गाड़ेकर, श्री गुरूदेव स्टूडियो.छाया अंकन – के.रमाकांत, सहायक – बी.के.कदम रसायन क्रिया – बाम्बे फिल्म लेबोरेटरीज प्रा.लिमिटेड, दादर प्रोसेसिंग इंचार्ज – रामसिंग प्रचार सामग्री व परिचय लेखन – काठोटे, भारती चित्र मंदिर रायपुर निर्माण व्यवस्था – बृजमोहन पुरी प्रचार अधिकारी – रमण नृत्य – सतीशचंद्र ध्वनि आलेखन – त्रिवेदी साऊंड सर्विस गीत आलेखन – कौशिक व बीएन शर्मा पार्श्वगायन – मोहम्मद रफी, मन्ना डे, महेंद्र कपूर, मुबारक बेगम,मीनू पुरूषोत्तम, सुमन कल्यानपुर गीत – राजदीप संगीत – मलय चक्रवर्ती, सहायक – प्रभाकर सह निर्देशक – बाल शराफ और लेखक, निर्माता, निर्देशक – मनु नायक.
गीतकार डॉ.एस.हनुमंत नायडू राजदीप की पंक्तियां थी -
‘भिलाई तुंहर काशी हे
ऐला जांगर के गंगाजल दौ,
ऐ भारत के नवा सुरूज हे
इन ला जुर मिल के बल दौ,
तुंहर पसीना गिरै फाग मा
नवा फूल मुस्काए रे’
शुरू मे फ़िल्म मे सुप्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद रचित महाकाव्य ‘कामायनी’ की पंक्ति निर्माता-निर्देशक मनु नायक की आवाज में गूंजती है -
इस पथ का उद्देश्य नहीं है
श्रांत भवन में टिक रहना,
किंतु पहुंचना उस सीमा तक
जिसके आगे राह नहीं है
सवा (1.25) लाख रुपए मे पूरी फ़िल्म बन गई और 27 दिन में इस का निर्माण पूरा हो गया. 16 अप्रैल 1965 को इसे प्रदर्शित किया गया. आजकल सालों-साल फिल्मे बनती हैं मगर इस फिल्म की शूटिंग सिर्फ 22 दिन पलारी में की गयी ।
मनुजी निर्माता महेश कौल के सहायक रहे है. वे उनको आज भी गुरू मानते है.
सपनों का सौदागर गोपीनाथ, हम कहां जा रहे हैं, मुक्ति, दीवाना, प्यार की प्यास, तलाक और पालकी जैसी सुपरहिट फिल्में देने वाले कश्मीरी मूल के फिल्मकार महेश कौल का रायपुर से भी नाता था। महेश कौल को जब फिल्म का पता चला तो उनका कहना था कि क्षेत्रीय फिल्मों का मार्केट छोटा है इसकी लागत भी नहीं निकलेगी मगर नायक ज़िद पर थे, उन्होंने फिल्म ही नहीं बनाई वरन् उसके माध्यम से छत्तीसगढ़ के लोगों को एक संदेश भी दिया था। पटकथा लेखक पं.मुखराम शर्मा के साथ व्यवसायिक साझेदारी में अनुपम चित्र में मुलाजिम भी थे मनु नायक। काम था प्रोडक्शन से लेकर अकाउंट तक सम्हालना .
दरअसल 62 मे पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ की रिकार्ड तोड़ सफलता ने मनु नायक को भी प्रेरित किया कि वे भी छत्तीसगढ़ी में फिल्म बनाएं. एक राममूर्ति चतुर्वेदी भी वहां थे . एक दिन सब जश्न मना रहे थे. उनसे पूछा तो पता चला कि गंगा मैया .. सुपर हिट हो गयी है. अब रीजनल फिल्म का सबको बुखार चढ़ गया. ताव में आ कर मनुजी ने अनाउंस कर दिया कि वे भी फिल्म बना रहे हैं. यह खबर सब फ़िल्मी अखबारों में लगी और टाईम्स आफ इंडिया में भी छप गयी. कई दिन उहापोह में बीते. सवाल था फाईनेंस का . जो ब्रोकर लोग अनुपम को फिनांस करते थे उन्होंने मनुजी की ईमानदारी देखी थी, उनको 5000 रूपये बिना ब्याज पेशगी दे दिए .
न कोई कहानी थी न कोई टीम, बस एक धुन थी जो रातों में पीछा करती.
सलीम (सलमान खान के पिता ) भी तब मुम्बई में जमने की कोशिश में थे, उनसे बात हुई बाकायदा उनको हीरो ले कर 501 रूपये साईनिंग अमाउंट दे दिए गए. बाद में फिल्म डिले हुई तो सलीम किसी और शूटिंग में रम गए वरना वे कही देबे के हीरो बनते. साईनिंग अमाउंट लौटाने का तो सवाल ही नही था. उनने कहा कि पैसे आएंगे तो लौटा दूंगा. अन्य कलाकारों में सुरेखा के पिता ने संपर्क किया. उनको भी 501 दे कर साईन कर लिया.
कैफ़ी आजमी से स्क्रिप्ट की बात तो हुई . फारुखी साब एक थे उनकी मदद मिली. मगर बात नही बनी, उनको दिलचस्पी ही नही थी. उनका घर भी दूर था. कई लेखकों के चक्कर लगे. गाना लिखवाने बिलासपुर आना हुआ. खुद एक पटकथा लिखी. हनुमंत नायडू साथ थे यहां. द्वारका प्रसाद तिवारी का नाम तय हुआ और विमल कुमार पाठक का, गीत के लिए मगर बात जम नही पाई. ये बात है सन 62 की। तब लाईट भी नही हुआ करती थी. फिल्म बनेगी इसे ले कर कई मोर्चों पर संशय थे, गीत लिखने पर गफलत भी हुई क्योंकि फिल्म में सिचुएशन पर गीत लिखे जाते हैं और एक लेखकजी ने कह दिया -" देख बाबू
मोर मूड जोन डाहर ले जाथे तो मंय लिखथों .
अइसे में कभो नई कर पाओं ",
फिर बैरंग रायपुर लौट कर नायडूजी से बात हुई और तय हुआ वे गीत लिखें, कोई संपादन हुआ तो मैं करूंगा, उस दौर में लिखा गया -
परबत मोर मितान हवे
मय बेटा हों ये धरती के....
स्वर्गीय बसंत दीवान और परमार (?) का भी पूरा सहयोग मिला.
फिल्म शुरू हुई आख़िरकार . रायपुर में खपरा भट्ठी के पास रामाधार चंद्रवंशी के निवास पर अपनी पूरी टीम को ठहराया और टहलते हुए बस स्टैंड की तरफ निकले जहां मुलाक़ात पलारी से तत्कालीन कांग्रेस विधायक स्वर्गीय बृजलाल वर्मा से हो गई। चूंकि उन दिनों मनु नायक और उनकी पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म के बारे में काफी कुछ छप रहा था लिहाजा वर्मा ने पैदल चले जा रहे मनु नायक को रोका और हालचाल पूछा। जब नायक ने अपनी दुविधा बताई तो उन्होंने तुरंत सारी व्यवस्था करने एक चिट्ठी अपने भाई तिलक दाऊ के नाम लिख दी। बातों-बातों में श्री वर्मा ने एक प्रस्ताव भी रख दिया कि पूरी फिल्म की शूटिंग पलारी में होगी और यह सुविधा भी दे दी कि महिलाओं के लिए उनके घर के पुश्तैनी गहने इस्तेमाल किए जाएंगे।
मुहूर्त शॉट रायपुर के विवेकानंद आश्रम में लिया गया.
इस फिल्म में मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर, मीनू पुरूषोत्तम और महेंद्र कपूर ने भी गाने गाए लेकिन जब रफी साहब ने बेहद मामूली रकम लेकर मेरी हौसला अफज़ाई की तो उनकी इज्जत करते हुए इन दूसरे सारे कलाकारों ने भी उसी अनुपात में अपनी फीस घटा दी।
सीमित खर्च में फिल्म पूरी करना बेहद कठिन था। पाकिस्तान के साथ युद्ध की वजह से आपातकाल के चल्ते कच्ची फिल्म की विदेश से आपूर्ति नहीं हो रही थी और भिलाई इस्पात संयंत्र को सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील मानते हुए इसके आस-पास फोटोग्राफी या शूटिंग पर उन दिनों भारत सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था। वैन में परदा डाल कर चोरी छिपे भिलाई के शॉट्स लिए।मुबारक बेगम स्टूडियो पहुंची और रिहर्सल भी की। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। उनकी आवाज में यह गाना जम भी रहा था। लेकिन दिक्कत आ रही थी महज एक शब्द के उच्चारण को लेकर। गीत में जहां ‘राते अंजोरिया’ शब्द है उसे वह रिहर्सल में ठीक उच्चारित करती थीं लेकिन पता नहीं क्यों जैसे ही रिकार्डिंग शुरू करते थे वह ‘राते अंझुरिया’ कह देती थीं। इसमें हमारी पूरी-पूरी एक शिफ्ट का नुकसान हो गया। उस रोज पूरे छह घंटे में मुबारक बेगम से ‘अंजोरिया’ नहीं हुआ वह ‘अंझुरिया’ ही रहा। अंतत: हमनें अनुबंध की शर्त के मुताबिक उनका और सारे साजिंदों व तकनीशियनों का भुगतान किया और अगले ही दिन सुमन कल्याणपुर को अनुबंधित कर उनकी आवाज में यह विदाई गीत रिकार्ड करवाया। चूंकि हम एचएमवी से पहले ही अनुबंध कर चुके थे, ऐसे में गीत न गवाने के बावजूद मुबारक बेगम का नाम टाइटिल में हमें देना पड़ा, 14 अप्रैल 1965 को फिल्म रिलीज हुई दुर्ग की प्रभात टाकीज में। फिल्म का प्रीमियर होना था रायपुर के मनोहर टॉकीज में (जो बाद में शारदा हुई और अब खंडहर बन गयी है) लेकिन कतिपय विवाद के चलते टॉकीज के प्रोप्राइटर ने अनुबंध के बावजूद दो दिन पहले ही फिल्म के प्रदर्शन की मनाही कर दी।
14 अप्रैल 1965 को फिल्म रिलीज हुई दुर्ग की प्रभात टाकीज में।
दुर्ग में यह फिल्म बिना किसी विवाद के चली, फिर इसे भाटापारा में रिलीज किया गया और सारे विवादों के निपटारे के बाद जब फिल्म टैक्स फ्री हो गई तो रायपुर के राजकमल (आज की शानदार राज टॉकीज) में प्रदर्शित हुई।
फिल्म नही चलने का कारण आज वे मानते हैं हास्टल में, फैमिली में रामायण देखने का ज़माना था, फिल्मे वर्जित थीं. बिजली नही थी . प्रचार के साधन नही थे,
11 जुलाई 1937 को रायपुर तहसील के कुर्रा गांव-तिल्दा तहसील में जन्मे नायक 1957 में सपने लिए मुंबई चले गए.
नायक ने रेहाना सुल्ताना और काजोल की माँ तनूजा की सेक्रेट्रीशिप भी की है . वे आज भी सक्रिय-सेहतमंद हैं, उनको हार्दिक शुभ कामना ।
अब बॉक्स आफिस के गणित का नही इलाके के फ़िल्मी इतिहास का शिखर बन गयी है कही देबे सन्देश और यह एक विचित्र सा सत्य है कि जो फिल्म टैक्स फ्री हो कर बॉक्स आफिस का गणित हल नही कर पाती हैं वे ही इतिहास में क्यों कर दर्ज हो जाती हैं. मनु नायक ने बाद में दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘पठौनी’ की भी घोषणा की थी। लेकिन यह फिल्म नहीं बन पाई। शायद कोई संयोग जमे, कुछ साथी हाथ बढ़ाएं .
चंद फिल्में करने के बाद लोग खुद को सुपर स्टार, खलनायक समझने लगते हैं और फिल्म निर्माता खुद को शो मेन मगर मनु नायक आज भी जमीन से जुड़े हैं सादगी और नफासत के साथ. ‘पठौनी’ बने, इसके लिए हमारी शुभकामना है.
इन 46 वर्षों में 50 से ज्यादा छत्तीसगढ़ी फिल्मों का निर्माण हुआ है । घर-द्वार, मोर छइयां-भुइयां, झन भूलो मां-बाप ला, , मयारू भउजी , परदेसी के मया , बनिहार , कारी ,मया ,मया देदे मया ले ले, हीरो नं.-1 इत्यादि फ़िल्मे याद रखी गई है. मगर औसत हर महीने फ्लोर पर आने वाली फिल्मो में कहानी के नाम पर नकल, छत्तीसगढ़ी भाषा के नाम पर हिन्दी,अंग्रेजी की मिक्स खिचड़ी और सस्ते संवाद के कारण छत्तीसगढ़ी बोली की संगीतमय अपनत्व भरी मिठास मजाक बन गई है.यह भी आशा है कि अब फिर से कोई कही देबे सन्देश जैसा सन्देश जरूर आएगा. यहां फिल्में बनना शुरु हुईं और बनती रहीं लेकिन हमने ध्यान नहीं दिया ! सास गारी देती रह गयी और सारी को मुम्बईया नकलची बन्दर ले उड़ा है.
मनु नायक का संपर्क सूत्र है-
-4बी/2, फ्लैट-34, वर्सोवा व्यू को-आपरेटिव सोसायटी, 4 बंगला-अंधेरी, मुंबई-53
मोबाइल : 098701-07222.
मनुजी से बात कर के लगा कि छतीसगढ़ का फिल्म संसार समृद्ध रहा है जिसे आजकल टपोरी-टाईप लेखन -निर्देशन लीड कर रहा है
मुझे क्षेत्रीय फ़िल्में देखना हिन्दी -अंग्रेजी फ़िल्म देखने से ज्यादा अच्छा लगता है. डायलॉग समझ नही आते मगर गाने-सीन समझ आ जाते है.क्षेत्रीय फ़िल्में अपने देश की विविध संस्कृति को बताती हैं और दूसरों के कल्चर में भी इंसानियत, प्रेम, त्याग, अच्छाई-बुराई सब तो एक जैसी ही होती है.
स्त्रोत सन्कलन साभार : http://cgsongs.wordpress.com.
(नीचे तस्वीर में मनुजी के संग श्री स्वराज करुण और डा.परदेसीराम वर्मा भी हैं.)
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10 comments:
मिलते हैं, इंतजार है रविवार का।
कही देबे सन्देश के निर्माता निर्देशक छत्तीसगढ़िया फिल्मो के भीष्म मनु नायक के साथ स्वराज जी भी दिखाई पड़ रहे है .
आ गया रविवार ,लेकिन खत्म नहीं हुआ इंतज़ार .
सुंदर आलेख और बेहतरीन प्रस्तुतिकरण के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई. छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग की बुनियाद रखने और रचने वाले आदरणीय मनु नायक जी को स्वस्थ, सुदीर्घ और यशस्वी जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं. उन्होंने पचास वर्ष पहले प्रथम छत्तीसगढ़ी फिल्म' कहि देबे सन्देश' बना कर तत्कालीन समाज को सही दिशा में चलने का सार्थक सन्देश दिया था. आंचलिक भाव-भूमि पर आधारित इस फिल्म के गाने भी सदाबहार हैं, और उनमें माटी की सोंधी महक है. क्या आज के हमारे छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्माता ,निदेशक ,पटकथा लेखक, गीतकार, संगीतकार और तमाम कलाकार मनु नायक जी और उनके 'कहि देबे सन्देश ' से कुछ प्रेरणा लेने की कोशिश करेंगे ?
मनु नायक जी पर सुन्दर लेख पढ़ कर आनंद आ गया. इसे अपनी पत्रिका में भी प्रकाशित करूंगा. कुछ महीने पहले उनके साथ रहने का सुखद अवसर हाथ लगा था, जय हम सुब्रत बोस जी की याद में केन्द्रित कार्यक्रम में शामिल होने भिलाई गए थे. वहां नायक जी का सम्मान था. आयोजन रखा था, सुब्रत बोस के लायक बेटे अनुराग बसु ने. अनुराग कौन है, यह
Sir mujhe kahi debe sandes film ko Pura dekhna hai
Plz sir Mai is film ko bahut dunda magar kahi nhi Mila
AP btao Mai Kya karu jisse is film ko dekh saku
Pitamah
Mera bahut jigyasa hai Mujhe is film ke bare me jab you tube me dekha Manu nakyak film pitamha ke bare me Jana or suna to Mera is film ko dekhne ko bechain ho gya hu
Please sir
YouTube में अपलोड करो सर ।
पूरा फिल्म को देखना है ।
कृपया करके आप फिल्म डाले ।
Sir, I'm creating a "wikipedia page" of the film. Please can you give me more details about the cast of the film. I'm still not able to get who played what character
सुंदर आलेख और बेहतरीन प्रस्तुतिकरण के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई
फिल्म के अभिनेत्री (सुरेख पारकर ) के संदर्भ में जानकारी (जैसे किस शहर की है वर्तमान में उनके परिचय के कोई है तो उसका मोबाइल नंबर ) मिल सकता है क्या
धन्यवाद
संतोष जलतारे
मोबाइल नंबर 7828203641
https://youtu.be/jhofBo-2bBQ
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