बस्तर के बहाने फिर से बन्दूक
शनिवार, 16 जुलाई 2011
देश भर में इन दिनों बस्तर की फिर से चर्चा है और हमेशा की तरह सिर्फ और सिर्फ यह इसलिए इन दिनों खबरों में है कि एक नए आदेश में सुप्रीम कोर्ट जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और जस्टिस एस. एस. निज्जर की बेंच ने छत्तीसगढ़ सरकार और केंद्र को निर्देश दिया कि वे आदिवासियों को एसपीओ के तौर पर नियुक्त करने और नक्सलियों से प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर निपटने के लिए उन्हें हथियारबंद करने से "परहेज" करें। आदिवासी युवकों की एसपीओ के तौर पर नियुक्ति असंवैधानिक है। बेंच ने कहा कि माओवादियों से लड़ने के लिए आदिवासियों की शैक्षणिक योग्यता और प्रशिक्षण समेत अन्य योग्यता मानदंड कानून और संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ जाते हैं। कोया कमांडो और सलवा जुडूम का गठन संविधान का उल्लंघन है। बस्तर में विशेष पुलिस अधिकारियों को कोया कमांडो का नाम दिया गया है। यह आदेश एक्टिविस्ट नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद गुहा, पूर्व नौकरशाह ई. ए. एस. शर्मा और अन्य की ओर से दायर याचिका पर दिया गया है।
कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार और केंद्र द्वारा विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को हथियारबंद करने पर मंगलवार को रोक लगा दी और 5000 सदस्यों वाले इस बल को असंवैधानिक करार दिया।
इधर जनजातियों की भर्ती पर रोक लगाए जाने पर राज्य पुलिस अधिकारियों की चिंता है कि इससे नक्सलियों के खिलाफ अभियान बुरी तरह प्रभावित होगा। धुर नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले में कार्यरत एक पुलिस अधिकारी की राय में एसपीओ की भर्ती पर रोक लगाने के फैसले पर हैरान हुआ जा सकता है । एसपीओ माओवादियों के आतंकवादी ढांचे को नष्ट करने में दक्ष हैं और क्योंकि वे स्थानीय हैं, जंगली रास्तों, नक्सली दांव-पेंच से अच्छी तरह परिचित हैं। उनके पास नक्सलियों के ठिकानों के बारे में ठोस जानकारी होती है इस नाते वे बस्तर में आतंकवाद के उन्मूलन के लिए मुफीद सहायक रहे हैं|
अब मानवाधिकार कार्यकर्ता न्यायालय के इस फैसले के स्वागत में प्रसन्न हैं और सरकार की पेशानी पर बल हैं कि नक्सलियों से लड़ते-लड़ते बस्तर के नाम पर शुरू हुई इस नई कानूनी लड़ाई से कैसे निपटें । कुछ सवाल खुद सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं मसलन सरकार से इन इलाकों में रह रहे सभी आदिवासी और गैर आदिवासी लोगों के मानव अधिकारों की हिफाजत सुनिश्चित करने को कहा गया है। कहा गया है कि सरकार कानून हाथ में लेने वाले हर तत्व पर लगाम कसे।
अब दो चीजें कैसे एक साथ चल सकती हैं| सभी जानते हैं कि नक्सली बस्तर में सिर्फ और सिर्फ हथियार दिखा कर जोर चलाए हुए हैं और क्या आदिवासी , क्या शहरी !! बन्दूक के आगे कौन सिर उठा सकता है? एस पी ओ को बन्दूक दी जाए या नही ये अब क़ानून का मसला है और इस पर कुछ भी कहना अपनी राय थोपना माना जा सकता है मगर जिनको नही मालूम वे जान लें कि हथियार आदिवासी संस्कृति का हिस्सा हैं और सदियों से जंगल में यही उनके ज़िंदा रहने आत्म रक्षा करने का जरिया रहे हैं| आदिवासी तीर धनुष रखते हैं और ये उनकी संस्कृति है| उस पाषाण युगीन ज़माने में ए के 47 नही हुआ करती थी | होती तो ए के 47 भी आदिवासी संस्कृति में शामिल रहती|
अब इस फैसले का साफ़ मतलब है लड़िये मगर बिना हथियार के लड़िये| हकीकत ये है कि सदियों से बस्तर में आज भी बड़े पत्तों वाले साल वन से ढंके ऐसे इलाके हैं, जहां जमीन तक सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती। बेशकीमती खनिज से लबालब इस धरती के लोगों के लब गर्मी में पानी को तरस जाते हैं| अब आदिवासियों वाला बस्तर हिंसा से तप्त है| मुम्बई की हिंसा में बीस लोग मारे जाते हैं तो बवाल मच जता है मगर बस्तर मे कभी पुलिस पार्टी पर हमले तो कभी आदिवासियों पर हमले और कभी नक्सलियों से मुठभेड़ में औसतन इतनी मौतें रोज़ हो रही हैं जितनी नार्थ ईस्ट और जम्मू कश्मीर में भी नही होती तो किसी को कोई रंज नही होता मानो ये इलाके भारत में हैं ही नहीं|
नक्सलवाद शुरू हुआ तो कहा गया कि वह आदिवासी के लिए बन्दूक चला रहा है मगर यह सच भी सामने आने लगा कि नक्सली नेता दूर तेलंगाना से संचालन करने लगे और बस्तर में गुरिल्ला स्क्वाड के नाम पर अब आदिवासी ही आदिवासी पर बंदूक चलाने लगा | इस स्थिति को कोर्ट ने समझा है मगर एकांगी समझा है| जजों ने कहा कि मुकम्मल ट्रेनिंग के बगैर आदिवासी को नक्सलियों और सशस्त्र बलों के सामने झोंक देना उन्हें तोप के मुंह में बांधने जैसा है|
पुलिस की हिंसा और नक्सल हिंसा के इस पेचीदा दौर में भी पुराने असली सवाल अब भी अनुत्तरित हैं कि बस्तर में शान्ति कैसे आए? शांति लाने की ज़िम्मेदारी नक्सलियों की है या सरकार की है?
फैसले से हैरत में आए लोगों की राय में क़ानून एक तरफ नक्सली को देशद्रोही आतंकी मानता है,सजा देता है| दूसरी तरफ उनके खात्मे के लिए बनी कोया कॉंमांडो फोर्स को ख़त्म करने के आदेश देता है| यह विरोधाभास अजीब है| मतलब साफ़ है कि बस्तर में अब वे जवान लड़ें जिनको मालूम ही नही है कि बस्तर क्या है, कैसा है और किधर जाना है, किधर मुड़ना है| उनके आगे रास्ता दिखाने वाले निहत्थे चलने वाले आदिवासी "उनकी" गोली के शिकार होंगे जिनकी चलाई हुई अंधाधुंध गोलियों का हिसाब किसी सुप्रीम कोर्ट को नही दिया जाना है| गोलियां कहां से आ रही हैं, कौन सप्लाई कर रहा है- यह भी बताना जरूरी नहीं है और अब तो बंदूकों पर निर्माता ड्रेगन देश का ठप्पा भी लग कर आ रहा है| गृह मंत्री चिदंबरम कह चुके हैं कि नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मिलकर यह जानने का प्रयास करेंगे कि विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) से हथियार वापस लेने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से नक्सलियों के खिलाफ अभियान कहां तक प्रभावित होगा।
लोगों की राय में कायदे से अब बस्तर का हल गोली नही बोली है और बंदूकों से हो रहे विनाश की जगह विकास से ही है| अबूझमाड़ में सभी आदिवासी इलाकों में अस्पताल, स्कूल और सड़क की दिक्कतों को दूर किया जाए और औद्योगिकरण की स्थिति में विस्थापन औऱ रोजगार की कारगर योजना के साथ वनोपज संग्रह-विपणन में भी आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए| मगर सड़क तब बनेगी जब सड़कें बनाने दी जाएंगी, स्कूल तब चलेंगे जब उनकी इमारतें सुरक्षित रहेंगी और अस्पताल तब चलेंगे जब उनके डाक्टर प्रेक्टिस के लिए बस्तर जाने से घबराएं नहीं| सुप्रीम कोर्ट ने एस पी ओ की बन्दूक तो हटवा दी अब सारी बंदूकों को वहां से रुखसत करा दे तो बस्तर की शांत फिजाओं में मैना की मीठी बोली फिर से गूंज सकती है यही बस्तर की चाह है और सही राह है |
कोर्ट ने छत्तीसगढ़ सरकार और केंद्र द्वारा विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को हथियारबंद करने पर मंगलवार को रोक लगा दी और 5000 सदस्यों वाले इस बल को असंवैधानिक करार दिया।
इधर जनजातियों की भर्ती पर रोक लगाए जाने पर राज्य पुलिस अधिकारियों की चिंता है कि इससे नक्सलियों के खिलाफ अभियान बुरी तरह प्रभावित होगा। धुर नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले में कार्यरत एक पुलिस अधिकारी की राय में एसपीओ की भर्ती पर रोक लगाने के फैसले पर हैरान हुआ जा सकता है । एसपीओ माओवादियों के आतंकवादी ढांचे को नष्ट करने में दक्ष हैं और क्योंकि वे स्थानीय हैं, जंगली रास्तों, नक्सली दांव-पेंच से अच्छी तरह परिचित हैं। उनके पास नक्सलियों के ठिकानों के बारे में ठोस जानकारी होती है इस नाते वे बस्तर में आतंकवाद के उन्मूलन के लिए मुफीद सहायक रहे हैं|
अब मानवाधिकार कार्यकर्ता न्यायालय के इस फैसले के स्वागत में प्रसन्न हैं और सरकार की पेशानी पर बल हैं कि नक्सलियों से लड़ते-लड़ते बस्तर के नाम पर शुरू हुई इस नई कानूनी लड़ाई से कैसे निपटें । कुछ सवाल खुद सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं मसलन सरकार से इन इलाकों में रह रहे सभी आदिवासी और गैर आदिवासी लोगों के मानव अधिकारों की हिफाजत सुनिश्चित करने को कहा गया है। कहा गया है कि सरकार कानून हाथ में लेने वाले हर तत्व पर लगाम कसे।
अब दो चीजें कैसे एक साथ चल सकती हैं| सभी जानते हैं कि नक्सली बस्तर में सिर्फ और सिर्फ हथियार दिखा कर जोर चलाए हुए हैं और क्या आदिवासी , क्या शहरी !! बन्दूक के आगे कौन सिर उठा सकता है? एस पी ओ को बन्दूक दी जाए या नही ये अब क़ानून का मसला है और इस पर कुछ भी कहना अपनी राय थोपना माना जा सकता है मगर जिनको नही मालूम वे जान लें कि हथियार आदिवासी संस्कृति का हिस्सा हैं और सदियों से जंगल में यही उनके ज़िंदा रहने आत्म रक्षा करने का जरिया रहे हैं| आदिवासी तीर धनुष रखते हैं और ये उनकी संस्कृति है| उस पाषाण युगीन ज़माने में ए के 47 नही हुआ करती थी | होती तो ए के 47 भी आदिवासी संस्कृति में शामिल रहती|
अब इस फैसले का साफ़ मतलब है लड़िये मगर बिना हथियार के लड़िये| हकीकत ये है कि सदियों से बस्तर में आज भी बड़े पत्तों वाले साल वन से ढंके ऐसे इलाके हैं, जहां जमीन तक सूरज की रोशनी नहीं पहुंचती। बेशकीमती खनिज से लबालब इस धरती के लोगों के लब गर्मी में पानी को तरस जाते हैं| अब आदिवासियों वाला बस्तर हिंसा से तप्त है| मुम्बई की हिंसा में बीस लोग मारे जाते हैं तो बवाल मच जता है मगर बस्तर मे कभी पुलिस पार्टी पर हमले तो कभी आदिवासियों पर हमले और कभी नक्सलियों से मुठभेड़ में औसतन इतनी मौतें रोज़ हो रही हैं जितनी नार्थ ईस्ट और जम्मू कश्मीर में भी नही होती तो किसी को कोई रंज नही होता मानो ये इलाके भारत में हैं ही नहीं|
नक्सलवाद शुरू हुआ तो कहा गया कि वह आदिवासी के लिए बन्दूक चला रहा है मगर यह सच भी सामने आने लगा कि नक्सली नेता दूर तेलंगाना से संचालन करने लगे और बस्तर में गुरिल्ला स्क्वाड के नाम पर अब आदिवासी ही आदिवासी पर बंदूक चलाने लगा | इस स्थिति को कोर्ट ने समझा है मगर एकांगी समझा है| जजों ने कहा कि मुकम्मल ट्रेनिंग के बगैर आदिवासी को नक्सलियों और सशस्त्र बलों के सामने झोंक देना उन्हें तोप के मुंह में बांधने जैसा है|
पुलिस की हिंसा और नक्सल हिंसा के इस पेचीदा दौर में भी पुराने असली सवाल अब भी अनुत्तरित हैं कि बस्तर में शान्ति कैसे आए? शांति लाने की ज़िम्मेदारी नक्सलियों की है या सरकार की है?
फैसले से हैरत में आए लोगों की राय में क़ानून एक तरफ नक्सली को देशद्रोही आतंकी मानता है,सजा देता है| दूसरी तरफ उनके खात्मे के लिए बनी कोया कॉंमांडो फोर्स को ख़त्म करने के आदेश देता है| यह विरोधाभास अजीब है| मतलब साफ़ है कि बस्तर में अब वे जवान लड़ें जिनको मालूम ही नही है कि बस्तर क्या है, कैसा है और किधर जाना है, किधर मुड़ना है| उनके आगे रास्ता दिखाने वाले निहत्थे चलने वाले आदिवासी "उनकी" गोली के शिकार होंगे जिनकी चलाई हुई अंधाधुंध गोलियों का हिसाब किसी सुप्रीम कोर्ट को नही दिया जाना है| गोलियां कहां से आ रही हैं, कौन सप्लाई कर रहा है- यह भी बताना जरूरी नहीं है और अब तो बंदूकों पर निर्माता ड्रेगन देश का ठप्पा भी लग कर आ रहा है| गृह मंत्री चिदंबरम कह चुके हैं कि नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मिलकर यह जानने का प्रयास करेंगे कि विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) से हथियार वापस लेने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से नक्सलियों के खिलाफ अभियान कहां तक प्रभावित होगा।
लोगों की राय में कायदे से अब बस्तर का हल गोली नही बोली है और बंदूकों से हो रहे विनाश की जगह विकास से ही है| अबूझमाड़ में सभी आदिवासी इलाकों में अस्पताल, स्कूल और सड़क की दिक्कतों को दूर किया जाए और औद्योगिकरण की स्थिति में विस्थापन औऱ रोजगार की कारगर योजना के साथ वनोपज संग्रह-विपणन में भी आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए| मगर सड़क तब बनेगी जब सड़कें बनाने दी जाएंगी, स्कूल तब चलेंगे जब उनकी इमारतें सुरक्षित रहेंगी और अस्पताल तब चलेंगे जब उनके डाक्टर प्रेक्टिस के लिए बस्तर जाने से घबराएं नहीं| सुप्रीम कोर्ट ने एस पी ओ की बन्दूक तो हटवा दी अब सारी बंदूकों को वहां से रुखसत करा दे तो बस्तर की शांत फिजाओं में मैना की मीठी बोली फिर से गूंज सकती है यही बस्तर की चाह है और सही राह है |
5 comments:
आपकी भावपूर्ण,दिल को कचोटती अनुपम अभिव्यक्ति को मेरा सादर नमन.आभार.
सहमत
''हल गोली नही बोली है और बंदूकों से हो रहे विनाश की जगह विकास से ही है''| अंत में जो निष्कर्ष निकला है, वह ठीक है. दुर्भाग्य यही है की हमारा सारा तंत्र नक्सलियों तक आते-आते फेल हो जाता है.
सुप्रीम कोर्ट का एक वाहियात,गैरजिम्मेदाराना एवं संवेदनहीन फैसला.हालिया कुछ फैसलों ने यह तय किया है कि वहां भी फैसले विचारधारा और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के आधार पर ही किये जाते हैं. सरकार को चाहिए कि क़ानून बना कर इस बेतुके फैसले को निष्प्रभावी करे.
पंकज झा.
बस्तर में अब शांति की जरुरत है , सुप्रीम कोर्ट इसके लिए भी कोई उपाय बताये .
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