गाँव से लौट कर...
बुधवार, 18 अगस्त 2010
15 अगस्त को मुझे कुछ समय मिला तो मैं लौट पडा अपने गांव|
मर ही जाता मैं शहर में बच गया गांव की शीतल हवाएं साथ है ...यह पंक्तियाँ मन में गूंजती रही| वैसे कालाहांडी का गाँव अब गांव नहीं रहा |
छप्पर वाले घरों पर टंगे डिश एंटीना बता रहे थे कि अब यहाँ भी सास-बहू के धारावाहिक देखे जा रहे है|
आश्चर्य हुआ... एक गाय चराने वाला बच्चा मोबाईल लिए बतियाता जा रहा था और पक्की सड़क बन चुकी है| दुःख इस बात का हुआ कि गाँव में जो यात्री विश्रामघर है वह जुआडियों का अड्डा बन चुका है और यह भी खबर मिली कि जुआ खिलाने वाला लखपति बन गया है|
यह सुखद खबर मिली कि गाँव के स्कूल की ऊंची चारदीवारी बनेगी और बच्चों के लिए झूले लगाए जाएंगे| कोई अफसर आकर निर्देश दे कर जा चुके हैं| ऐसे अफसर ही पिछड़े इलाकों का विकास करते हैं|
रायपुर के बाद आप महासमुंद जिले की सीमा पर पहुचते हैं तो भू दृश्य देख कर ही महसूस होता है कि आप एक सबसे पिछड़े माने जाने वाले इलाके में प्रवेश कर रहे हैं जहां भुखमरी एक अंतर्राष्ट्रीय सवाल है| हालाकि अब इलाके में तस्वीर बदल रही है| छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद पश्चिमी ओडीसा के कई कामगार गरीबी रेखा लांघ चुके हैं और श्रम करके कमा रहे हैं| इस साल बारिश कम हुई है लिहाजा कालाहांडी में फसल को लेकर किसान चिंतित हैं|
इसके बाद भी कि वहाँ रात में बिजली के बल्ब लो वोल्टेज के कारण टिमटिमाते हैं और साधनों की कमी शहर की याद दिलाती है, मुझे गाँव जाना पसंद है| सिर्फ चौबीस घंटों में शुद्ध हवा और प्रफुल्लित कर देने वाला ऐसा माहौल मिला कि लौटे तो लगा कितने दिनों बाद शहर आना हुआ है और सब कुछ नया सा बदला-बदला सा लगता रहा| चूल्हे पर पकी रोटी और घर की बाडी में उगी खेक्सी की सब्जी खा कर तृप्त हुए हम सब लौटे| नौकर ने जल्दी में खेक्सी बाँध भी दी जो रायपुर में बहुत महंगी सब्जी में शुमार है|खेक्सी,आमतौर से देखने में "करेले की छोटी बहन" जैसी लगने वाली यह सब्जी दुर्लभ रूप में बेलों में यत्र-तत्र उग आती है और किसान लोग आमतौर से खेतों में इसकी फसल नहीं उगाते हैं। शायद यही कारण है कि यह बाजारों में दिखाई नहीं पड़ती और ऊंची कीमत पर मिलती है। इसका वानस्पतिक नाम आपको मालूम हो, तो जरूर बताएं।
मैंने बगीचे का बाहरी चक्कर लगाते हुए देखा एक सांप तेजी से सरक रहा था| मैं उसे देख कर सतर्क होऊं इससे पहले वह फर्राटे भरता उगी हुई झाड़ियों में गुम हो गया | नौकर ने कहा कि -ऐसन तो कत्तेक घुमत रहिथे | तैं अपन रस्ते वो अपन रस्ते|नौकर से ज्ञान मिला| सच है कि हम जब तब किसी को नहीं छेड़ेंगे वो क्यों हमें छेड़ेगा| सांप तभी काटते हैं जब हम उस पर पाँव धर देते है | इसीलिए गाँव वाले शाम होते ही खा-पी लेते हैं और सुरक्षित ठिकानों पर जम जाते हैं और रात में निकलना भी हुआ तो लाठी के सहारे ठक-ठक करते चलते हैं ताकि रास्ते में आगे कोई जीव-जंतु हो तो अपना रास्ता ले ले| यह कभी सुनने में भी नहीं आया कि सीधे रास्ते चलते हुए सांप ने काट लिया| सांप पर पैर पड़ जाए या उसे खतरे का आभास हो तभी वह काटते हैं| गाँव की यह यात्रा अच्छी रही|
है अजीब शहर की जिंदगी, न सफर रहा, न कयाम है।
कहीं कारोबार सी दोपहर, कहीं बदमिजाज सी शाम है।(बशीर बद्र )
9 comments:
ha bhai mujhe bhi bada yad aate hai
बढ़िया रही गाँव के ये यात्रा.
जय हो खेकसी पठो देबे भाई
बोरा मा कतेक अकन लाए हस तेहां।
जय हो
गांव के बारे में जानकारी देती सुंदर पोस्ट !!
सुन्दर पोस्ट, छत्तीसगढ मीडिया क्लब में आपका स्वागत है.
आप समय निकाल कर अपने गाँव चले गए थे ,जानकर मुझे खुशी हुई. इसलिए कि शहरी जीवन की भाग दौड़ में अपने आपको झोंक देने के बावजूद आज मेरा गाँव भी मुझे अपनी ओर खींचता रहता है.आपके छोटे से आलेख में गाँव का जीवन साकार हो उठा है . फिर कभी गाँव जाएँ तो हमारे गांवों में आज के दौर में सामाजिक रिश्तों में आ रहे बदलावों को भी ज़रूर खंगालें. -- स्वराज्य करुण
gaanv kaa shi or sundr chitrn kiyaa bhu thik he. akhtar khan akela kota rajsthan
आपने गाँव जाकर आज़ादी मनाई। बहुत बढ़िया लगा। लौट आए तुम शहर को अपने। गाँव अच्छा तो लगता है, लेकिन वह शहर इतना बुरा भी नहीं लगना चाहिए जो आपके इस मुकाम का गवाह है। कितने पापड़ कैसे बेले यह भी वह जानता है। अच्छा लगा आपका अपनी मिट्टी के लिए प्यार। जब आप इस बात का जिक्र करते हैं कि गाँव की तस्वीर बदली है तो बात साफ हो जाती है कि नेता यानी राजनीतिक भ्रष्ट तो है लेकिन उसने किया भी है अपने क्षेत्र के लिए।
बार-बार एक बात मेरे दिमाग में आती रहती है कि जिसे देखो वह सरकार को कोसता ज़रूर है लेकिन यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि कल तक तो सायकल ही घूमने का आम साधन था। आज साधनों की सम्पन्नता के बाद भी आदमी की यह बात मेरी समझ से परे है।
लगने लगता है - उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे का सवाल लोगों को ज्यादा परेशान करता है।
खेक्सी को मेरे यहाँ 'चठैल' कहते हैं रमेश जी. वास्तव में काफी स्वादिष्ट होता है वह तो. अछालागा आपके गाँव जा कर. मुझे भी ले चलते साथ तो आनंद आ जाता. वास्तव में यह विडंबना है कि गाँव कि खबर भी अब ग्लोवल गाँव का देवता इस अंतर्जाल में ही पता चलता है...क्या करें. बेहतरीन विवरण. मुझे भी अपने गाँव की याद आ गयी.
- पंकज झा.
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