कालाहांडी में जिंदगी का नया सच, जीना है तो भागो
सोमवार, 11 मई 2009
कालाहांडी से लौटकर ताजा हालात की एक रिपोर्ट
भारत में भुखमरी के लिए अभिशप्त कालाहांडी अंचल में अब हालात बहुत बदल गए हैं। गाँवों में अब भुखमरी से मौतों की खबरें इक्का-दुक्का ही आती हैं। कोई ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने जादू की छड़ी घुमाकर भुखमरी की समस्या को एकदम निपटा दिया हो, बल्कि पलायन का कुटीर उद्योग चलाने वाले राष्ट्रीय दलाल नेटवर्क की बदौलत गाँव के युवक बाकायदा कमाने लगे हैं और गाँवों में टीवी, रेफ्रिजरेटर, डिश एंटीना जैसी चीजें भी नजर आने लगी हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य बन जाने के बाद सीमावर्ती पश्चिमी उड़ीसा के लाखों लोग रिक्शा खींचने के काम लग रहे है और उड़िया औरतों ने घरेलू नौकरानी के रूप में बर्तन-चौका, झाड़ू पोंछा करने के कामकाज में एकछत्र राज जमा लिया है। रायपुर से विशाखापत्तनम जाने वाली यात्री ट्रेनों में आवाजाही पूरे साल भीड़ से भरी रहने लगी है। कारण एकमात्र है, उड़ीसा के हजारों लोग कामकाज की खातिर छत्तीसगढ़ आने लगे हैं और रायपुर, दुर्ग, भिलाई, राजनांदगांव, बिलासपुर ही नहीं छत्तीसगढ़ के दूरस्थ अंचल में बसे अंबिकापुर, जगदलपुर जैसे शहरों में भी आम यातायात के सर्वसुलभ साधन रिक्शा खींचने लगे हैं। प्राय: हरेक शहर व कस्बे के बाहर उड़िया बस्ती की संख्या बढ़ने लगी है और यहाँ रहने वाली औरतों को पार्ट टाईम घरेलू नौकरानी का काम फटाफट मिल रहा है। नुआखाई में जब ये लोग गाँव जाते हैं तो रिक्शा ढूंढे नहीं मिलता और घरों की सफाई ठप पड़ जाती है।
पश्चिमी उड़ीसा के टिटलागढ़, खरियाररोड, नुआपाड़ा, कुरुमपुरी, बोलांगीर, तरबोड़, राजा खरियार, भवानीपटना शहरों-कस्बों और गाँवों में आजकल प्राय: सन्नाटा पसरा मिलता है। गाँव में हरेक दूसरे घर का कोई न कोई सदस्य पलायन कर चुका है। पलायन करने वाले कश्मीर तक जा चुके हैं। उनको काम देने वाले दलाल एडवांस रकम जमा करा जाते हैं। गाँव में भुखमरी की घटनाएं अब यदकदा ही सामने आती हैं। छत्तीसगढ़ की सीमा पार कर जब खरियार रोड के रास्ते कालाहांडी अंचल (अब जिला) में घुसते हैं तो शहरी चकाचौंध नजर आने लगती है और आगे नुआपाड़ा जिले में आने वाले मुख्यमार्गीय ग्राम सीनापाली, लीमडीही, कुरुमपुरी, दलदली, कोमना और बंजारी तक बिजली के खंबे हरियाली के बीच झांकते हैं।
(special programme shoot for sahara tv and print network in year 2005 at kalahandi region..vanue -jain mandir khariar road.west odisha where many intelectuals, journalists and dignified citizens participated in debate/camera ajay chaudhri..)
कालाहांडी में अब मोबाइल बजने लगे हैं और डिश टीवी पर सास-बहू के कार्यक्रम चाव से देखे जा रहे हैं। गाँवों में मनिहारी, सौंदर्य प्रसाधन, मेडिकल, महंगे इलेक्ट्रिकल-इलेक्ट्रॉनिक सामानों की दुकानें चल रही हैं और इन सबका खरीदार बनकर एक नई पीढ़ी उभर चुकी है। इस पीढ़ी का फंडा साफ है - खेती-बाड़ी छोड़ो और शहर मे जाकर रिक्शा खींचने, बर्तन मांजने, ढाबों, नर्सिंग होम, दुकानों में दिहाड़ी पर काम करने से लेकर ठेके पर ईंटें बनाने और इमारतें खड़ी करने के काम में दस गुना ज्यादा मजूरी पाओ।
सहजेट ग्राम का सुपन बताता है दलाल भी अब हमें 300 रुपए की दिहाड़ी ऑफर करने लगे हैं। वे खुद कितना कमा रहे होंगे यह वे जानें। रोजाना 100-50 रुपए रोजी पर अब खेतों में काम करने के लिए मजदूर ढूंढना मुश्किल है। ऑंध्र प्रदेश, कर्नाटक से लेकर जम्मू कश्मीर और गुजरात के नमक केंद्रों पर काम करने की खातिर महीनों डटे रहने के मामले में उड़िया मजदूर बिहारी मजदूरों का रिकार्ड तोड़ रहे हैं।
अकेले छत्तीसगढ़ में रिक्शा इंडस्ट्री में शत-प्रतिशत उड़िया लोगों की भरमार है और वे गाँव से एक पोटली लेकर जाने वाला शख्स साल-छह महीने में नया रिक्शा चलाते हुए 100-50 किलोमीटर की दूरी तय करके गाँव आ जाता है। छत्तीसगढ़ सरकार ने उड़ीसा को जोड़ने वाली सड़कें चकाचक कर दी है। रायपुर से डेढ़-दो घंटे में फर्राटा भरती गाड़ियाँ कालाहांडी सीमा में प्रवेश कर जाती हैं।
ऐसा भी नहीं है कि पूरे कालाहांडी अंचल में लोगों की गरीबी दूर हो गई हो। लेकिन औसतन यह फर्क किसी भी गाँव में साफ देखा जा सकता है कि दो पीढ़ियाँ बन गई है। एक पीढ़ी में शहरों की हवा खाकर आत्मविश्वास से लबरेज लोग हैं, जो विवशता, दीनता या फिर पराश्रित रहने के अभिशाप से मुक्त नार आते हैं, दूसरी पीढ़ी में ठेठ उजड्ड और निपट जंगली लोग हैं, जिनका रूखा जवाब होता है - कुछ भी खा लेंगे और इतनी गर्मी पड़ती है कि कपड़े पहनने की क्या ारूरत है। खास यह है कि नई पीढ़ी का वर्चस्व बढ़ रहा है। गाँवों में नई हिंदी फिल्मों की सीडी बजती है और शहरी कल्चर दिखाई पड़ता है।
कालाहांडी में बदलाव का यह काम पलायन के उस दर्द से जुड़ा है जिसे कई राज्य झेल रहे हैं। नुआपाड़ा जिले में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 35 हजार हेक्टेयर जमीन पर खरीफ की और सिर्फ 11 हजार हेक्टेयर जमीन पर रबी की फसल की जाती है। ताजा आंकड़ों के मुताबिक अब तक 106 प्रतिशत बारिश हो चुकी है लेकिन खंड वर्षा के चिन्ह उन सूखती फसलों पर नजर आते हैं जहां सिंचाई के साधन नहीं हैं। इस समस्या से इक्का-दुक्का ही परेशान दिखे वरना गाँव में त्योहार के उल्लास में वो नई पीढ़ी पूरे खर्च के साथ तैयार थी जिसके लिए पलायन अब तफरीह और पैसे दोनों का जरिया है। उसे फसल की चिंता नहीं लेकिन गांव से जुड़ाव है। लिहाजा नुआखाई (नई फसल आने पर अन्न खाने की परंपरा) पर गाँव आने और अमूमन इस मौसम में तो हरी-भरी वादियों की पनाह में आने की ललक गाँव खींच लाती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 73 प्रतिशत गाँवों में बिजली पहुँच चुकी है। जिले में 5 लाख 30 हजार की आबादी है। स्त्री-पुरुष अनुपात प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले छह स्त्रियाँ ज्यादा हैं। लेकिन शिक्षा का प्रतिशत 45 से भी कम है। क्या यह उन राज्यों के लिए कोई सबक है जहाँ अनुपात उल्टा है ? या पिछड़े कहे जाने वाले आदिवासी भ्रूण परीक्षण जैसी सुविधाओं से महरूम होने के कारण अभी तक 'प्रगतिशील' नहीं हो पाए हैं ?
कुल निचोड़ यह है कि ताजा सर्वेक्षणों में भी भुखमरी की सूची में दीगर राज्यों का जिक्र है और कालाहांडी की कालिख को धोने का काम सरकारों ने नहीं बल्कि पलायन इंडस्ट्री ने करना शुरू कर दिया है।
कालाहांडी : कुछ तथ्य
l गजेटियर के मुताबिक 1905 में कालाहांडी भूभाग छत्तीसगढ़ अंचल से जुड़ा था।
l कालाहांडी में सालाना औसतन 1250 मिमी बारिश होती है। लेकिन सिंचाई व संग्रहण के अभाव में कालाहांडी में प्राय: सूखा छाया रहता है।
l इंद्रावती जल परियोजना ने दक्षिणी हिस्से को खुशहाल बनाया है लेकिन पश्चिमी उड़ीसा के लिए योजनाएं फाइलों में अटकी हैं।
l भक्तचरण दास को 1990-91 के दौर में केंद्र में रेल राज्य मंत्री बनाया गया था। तब से लगातार दो दशकों से किसी भी क्षेत्रीय सांसद को केंद्र सरकार में मंत्री बनने का मौका नहीं मिला। राजनीतिक उपेक्षा भी कालाहांडी के पिछड़ेपन का अहम कारण माना जाता है।
l समस्त उड़ीसा की साक्षरता दर 63.61 प्रतिशत है जबकि कालाहांडी में साक्षरता सिर्फ 46 फीसदी लोगों के हिस्से में आई है। यहाँ 1000 पुरुषों के मुकाबले 972 स्त्रियाँ हैं।
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