रायपुर में पत्रकारों पर मुकदमा, कुछ उंगलियाँ अपनी तरफ भी
सोमवार, 11 मई 2009
1995 में जब भारत में पहला न्यूज चैनल बाकायदा लांच हुआ और फिर धड़धड़ पत्रकारिता का एक नया दौर टीवी के जरिए ड्राइंगरूम में दाखिल हुआ तभी से यह तय हो गया था कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का यह बूम प्रिंट मीडिया की मर्यादाओं को पार करके अपने नए तौर-तरीके गढ़ लेगा। अब न्यूज चैनलों की नदी पूरे उफान पर है और उसमें रोज एक मोती निकल रहा है। इस नदी में कई सीप हैं जो बाहर आने के लिए बेताब हैं। मगरमच्छों की चर्चा का फिलहाल इरादा नहीं है।
एक ब्रेकिंग चाहिए ताकि हम खेल सकें। 24 घंटे दिखाना है। कुछ न मिले तो इंडिविजुअल स्टोरी पर खेलते रहो। साँप-सपेरे दिखाओ, भूत-प्रेत, हवेली, श्मशान दिखाओ और फिर भी कुछ न मिले तो घस से भागी हुई किसी बालिका को सप्रेमीक स्टुडियो में बुलाकर प्रोफेसर मटुकनाथ-जूली पर बहस कर लो। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी हदों को लांघकर सनसनी से भी आगे निकल गया है।
चैनलों में एक-दूसरे आगे निकलने की होड़ में इलेक्ट्रॅनिक मीडिया के पत्रकारों को जबर्दस्त तनाव का शिकार बना दिया है और खबरों के मोर्चे पर तो इतना दबाव है कि खबर छूटी तो नौकरी गई... इस मानसिकता के कारण पत्रकार दौड़-भाग के साथ-साथ छीना-झपटी के भी शिकार व शिकारी बन रहे हैं।
अब सीधे मुद्दे की बात की जाए। रायपुर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के छह पत्रकारों-कैमरामैनों की एक पुराने मामले में गिरफ्तारी के नए आदेश ने पत्रकारों को विचलित किया है। यह कोई डेढ़ साल पुराना मामला था। एक स्कूल में गड़बड़ी की कवरेज करने गए। मीडियाकर्मी लड़-भिड़ करके न्यूज के साथ-साथ कानूनी मुकदमा भी बनवा कर लौटे थे। उनकी भिड़ंत सीएसपी रैंक के एक अफसर से हो गई, जिसे बाद में हटाकर दुबारा बहाल कर दिया गया। इस मामले में स्कूल तो पीछे छूट गया और पुलिस वर्सेस पत्रकार का झमेला शुरू हो गया लेकिन धरना-प्रदर्शन के उपरांत मामला शांत हो गया। अब गिरफ्तारी आदेश से पत्रकार सशंकित हैं। यह कहना जायज लगता है कि बिना जाँच पूरी किए यह गिरफ्तारी स्थिति को तनावपूर्ण बना देगी।
2 मई को अचानक रायपुर रेंज के नए कप्तान ने पुरानी बोतल से विवाद के जिन्न को बाहर निकाल कर चालान पेश करने (पत्रकारों की गिरफ्तारी) के आदेश दे दिए। मामला कानूनी हो गया है। गिरफ्तारी न हो इसके लिए प्रेस क्लब, रायपुर सक्रिय है और कायदे से ऐसे मामलों में सामूहिक गिरफ्तारी से पहले अंतर्निहित परिणामों पर भी पूरी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। असल मुद्दा यह है कि यह नौबत क्यों आई ? क्या इससे बचा जा सकता था ? इस सवाल को इलेक्ट्रॉनिक नजरिए से देखें तो उनकी मजबूरियों के भी कुछ प्रश्न सामने आते हैं। घटना होती है तो प्रिंट के पत्रकार चुपचाप नोट करके चले जा सकते हैं, लेकिन टीवी वाले पूरा परिदृश्य शूट करते हैं। यह शूटिंग ही उनके लिए भयानक खतरे पैदा करती है। इन खतरों से चतुर खिलाड़ी निपट लेते हैं। ऐसे भी साथी लपेट में आए हैं जिनको अनुभवी माना जाता है लेकिन अब पुलिस चूँकि मामला दर्ज कर चुकी है और गिरफ्तारी तो होगी ही लिहाजा दो प्रश्न खड़े होते हैं। पहला यह कि क्या गिरफ्तारी जायज है ? दूसरे, जब मामला ठंडे बस्ते में था तो अचानक क्यों उस पर कार्रवाई की गई ?
इन प्रश्नों के जवाब पुलिस प्रशासन को तब देने पड़ेंगे जब मामला आगे बढ़ेगा। फिलहाल तो कुछ उंगलियाँ अपने प्रोफेशन के कर्णधारों पर भी उठनी चाहिए। सबसे अहम सवाल तो यही है कि आप झंझट करना चाहते हैं या कवरेज करना चाहते हैं ? झंझटें पैदा न हों इसके लिए सबसे पहले आचरण को अत्यधिक संयमित करना वक्त की मांग है। आप सामने वाले की गड़बड़ियों को दृश्यपटल पर लाकर अपने लिए तो महज न्यूज आइटम तैयार कर रहे हैं मगर सामने वाला क्या शराफत से महज इसलिए चुप रहेगा कि उसकी गड़बड़ी को शूट करने वाले आ पहुँचे हैं ? वह रिएक्ट करेगा, जरूर करेगा। ऐसे में आपकी पेशागत खूबियों का महत्व सामने आता है कि आप काम करके निकल लें या फिर मामले-मुकदमे झेलते रहें। पत्रकार हैं तो 'आइए सरजी' वाले लटके-झटकों में फंसकर जो जमीन से छह इंच ऊपर चलने लगते हैं, उनको समझ लेना चाहिए कि खुद को सितारा समझते हुए फनफनाना ठीक नहीं है। आजकल कैमरा और आईडी के लिए फिरने वालों का हुजूम जिस तरह से हर मौके पर उपलब्ध है, इस सूरतहाल में सार्वजनिक आचरण के मानक ही पत्रकार को अनावश्यक दिक्कतों से बचा सकते हैं, वरना इस प्रोफेशन में वैसे ही बहुत दिक्कतें हैं।
1 comments:
सही फ़रमाया आपने !! वैसे पुलिस और मिडीया का झगडा पुराना है !!
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