जनतंत्र को गनतंत्र से मत गरियाओ
सोमवार, 11 मई 2009
नक्सलवाद के सब्जबाग दिखाकर अच्छे नतीजों से भटकाते हुए तालिबानी ताबूतों में बंद कर देने वाले लड़ाकों को अब अपने तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करना चाहिए कि उनके मतदान बहिष्कार की धमकी के बावजूद आदिवासी वोट दे रहे हैं और लोकतंत्र के प्रति उनका अनुराग कायम है तो फिर वे अकेले अपने दम पर कब तक जनतंत्र को गनतंत्र से गरियाते रहेंगे। क्या यह मतदान एक सबक नहीं है उनके लिए कि वे भी अपनी बात मनवाने के लिए लोकतंत्र का रास्ता पकड़ें और नेपाल सरीखी मिसाल पेश करें, जहाँ वर्षों तक लड़ने-थकने के बाद माओवादी अब जनता के चुने हुए नुमाइंदे बनकर सरकार चला रहे हैं।
नक्सलियों से यह सवाल तो पूछा ही जाएगा कि 16 अप्रैल की घटना में मारे गए और बुरी तरह जख्मी हुए उन मतदान कर्मियों का क्या कसूर था जो वे बारूदी सुरंगों का निशाना बना दिए गए। वे तो अपना फर्ज अदा करने के लिए वाहन पर सवार हुए थे। डयूटी पर जाना उनकी कर्तव्यगत बाध्यता थी। नहीं जाते तो मुश्किलों में पड़ते,गए तो जान से गए। क्या उन मतदानकर्मियों के हाथों में ईवीएम पेटियों की जगह बंदूकें नार आ रही थी उन नक्सलियों को जो कहीं छुपे बैठे थे। लाल सलाम करने वालों की किस लाल किताब मे लिखा है कि बेगुनाहों को कत्ल कर दिया जाए और इससे भला किस मकसद की प्राप्ति हो सकती है ? सिवाय इसके कि यह करतूत सब तरफ धिक्कारी जाएगी और कोई भी सभ्य समाज इस तरह के रक्तपिपासुओं को कभी भी मान्यता नहीं दे सकता जो बोली की जगह गोली से, समरसता की दीवाली की बजाय खून की होली के रास्ते पर बढ़ चुके हों। किसी भी निरपराध की हत्या अक्षम्य है, अस्वीकार्य है, फिर चाहे वह नक्सलियों के द्वारा की गई हो या फिर सुरक्षा बलों के द्वारा। बस्तर और सरगुजा की वादियों को अब शांति की जरूरत है।
कुछ सवाल तो सरकारों से भी पूछे जाने चाहिए। मसलन इतने वर्षों के बाद भी जहाँ बड़े शहरों में मेट्रो ट्रेनें धड़धड़ा रही हैं, वहाँ बस्तर जैसे इलाके रेल सुविधा से भी महरूम हैं। हमारी तथाकथित प्रगति के मुँह पर क्या यह एक करारा तमाचा नहीं है कि आदिवासी समाज के कई लोगों ने आज तक ट्रेन नहीं देखी। उनको स्कूल, सेहत, आवागमन, रोशनी, भोजन और संचार के लिए आज भी मध्ययुगीन या प्राकृतिक सहूलियतों से काम चलाना पड़ता है। आदिवासी समाज को मूढ़, निरक्षर और पिछड़ा मानने वाले यह भी बताएं कि आदिवासी जब एकजुट हो जाते हैं तो पूरी की पूरी 12 सीटें एक ही पार्टी पर क्यों कुर्बान कर देते हैं ? यह एक अलग चुनावी मसला हो सकता है लेकिन लोकतंत्र की सेहत के लिए यह बेहद शुभ रहा है कि भीषण गर्मी के बावजूद आदिवासी इलाकों में मतदान केंद्रों पर कतारें लगी रही और चाहे जिसे दिया लेकिन लोगों ने वोट दिया। चुनना जरूरी है। आप किसी को नहीं चुनेंगे और फिर अपनी बेहतरी के लिए सरकारों को पाँच साल कोसते रहेंगे यह तो उचित नहीं है।
मतदान हो चुका है और नतीजों के लिए 16 मई तक का इंतजार रहेगा। लेकिन छत्तीसगढ़ के मतदाता इस बार फैसला कर चुके होंगे कि उनको जातिवाद और संकीर्णता के जहरबुझे तीरों से बचकर निकलना है या फिर लंबे समय तक उनका प्रकोप झेलना है। पिछली परंपरा और मिसालों से तो यही सामने आया है कि छत्तीसगढ़ के नागरिक ऐसी फिजूल की बातों को ज्यादा तरजीह नहीं देते।
4 comments:
बात तो सही है आपकी!
बहुत खरी-खरी बात कही आपने. मुझे लगता है कि नक्सलियों को मदद करने वाले लोग इन्हीं आदिवासियों के बीच से ही हैं. चाहे वे विवशता से उनके साथ जुड़े हों या स्वेच्छा से. बस्तर से हिंसा खत्म करने के लिए ज़रूरी है कि एक ही गांव टोले में रहने वाले मासूम आदिवासी हिंसा से बचाए जाएं और नक्सलियों की मदद करने वालों को कटघरे में लाया जाए. छत्तीसगढ़ पर विचारोत्तेजक ब्लाग प्रारंभ करने के लिए शुभकामनाएं.
राजेश अग्रवाल
... प्रभावशाली अभिव्यक्ति ।
अब कामरेड के संविधान में "गन तंत्र", "गरीबों का लाल खून" और "स्टेन गन मन" के अलावा कभी कुछ लिखा ही न गया हो तो बेचारे मासूम क्या करें. आज ही चीन में मासूम कामरेडों ने डेढ़ सौ निहत्थे नागरिकों को बेदर्दी से ठिकाने लगा दिया.
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