फिर से बस्तर

गुरुवार, 22 जुलाई 2021


बस्तर की शांत
फिजाओं में अब बारूद की इतनी गंध फैल चुकी है कि पहाड़ी मैना के चहचहाने की कोई गुंजाइश ही नजर नही आती। विचारधारा से भटका खूंरेजी माओवाद भी लड़ते लड़ते अब एक ऐसी जहरीली सुरंग में फंस गया है जिसम सिर्फ बंदूक की भाषा में बात हो रही है और एक दर एक शांति के सारे प्रयास तब तिरोहित हो जाते हैं जब मुठभेड़ में सिर्फ शहादतों की खबरें आती है। 

घटनाक्रम पर नजर डालें तो एक शुभ संकेत यह भी नजर आता है  कि बस्तर में माओवादी भी लगता है खून खराबे से तंग आ चुके हैं। उदाहरण तब देखने को मिला जब सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के जवान राकेश्वर सिंह को नक्सलियों ने मुठभेड़ के बाद पहले तो पकड़ लिया लेकिन हमेशा की तरह वे उसे मार नहीं सके और एक खास बात और हुई है कि बस्तर में स्वयंसेवी संगठनों और शांति के असली पहलकर्ताओं के भारी दबाव में नक्सलियों को राकेश्वर सिंह को छोड़ना पड़ा।

जानकारों की मानें तो बस्तर में 1980 से शुरू हुआ नक्सलवाद अब इस टर्निंग पॉइंट पर आ चुका है कि उनसे सरकार की बातचीत तभी इसी सार्थक मुकाम पर पहुंच सकती है जब स्वयंसेवी संगठनों और वास्तव में आदिवासियों का भला चाहने वाले लोगों को मध्यस्थ की भूमिका में लाया जाए।


बीजापुर में 22 जवानों की हालिया शहादत का मसला अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रहा है। सवाल यह भी उठ रहे हैं कि चूक कहां हुई। ऑपरेशन के लिए दो हजार से ज्यादा जवानों को जंगलों में उतारा गया जबकि नक्सलियों की संख्या बताते हैं कि 5 या 7 सौ ही थी। फिर भी नक्सली भारी पड़े। 

मौके का मुआयना करने वालों के मुताबिक नक्सली ऊंची पहाड़ी पर थे और जवान उन पहाड़ियों के बीच मैदान में फंसे हुए थे। ऊपर से गोलियां चलती रही और एक-एक कर जवान ढेर होते गए। यहां गौर करने वाली बात है कि नक्सली हमेशा ऐसा ही एंबुश लगाते हैं जब फोर्स लौट रही हो और थकी हुई हो। कई जवान एक साथ एक ही इलाके में मौजूद थे। गोलियां सीधे सामने चल रहे जवानों को लगी। मतलब नक्सलियों ने जवानों को पहले अंदर आने दिया और फिर फंसाया।

जोनागुड़ा गांव में नक्सली छुपे हुए थे। हुआ यह कि पहाड़ी मोर्चे पर जब जवानों को लगा कि यहां में फंस गए हैं तो वह गांव की तरफ भागे। गफलत यहीं हो गई। गांव में भी नक्सली मौजूद थे। नक्सलियों ने बड़े आराम से घेर कर न सिर्फ जवानों को मारा जो कि पहले से घायल थे बल्कि उनके कपड़े जूते और हथियार भी लूट कर ले गए। खबरें यह भी हैं कि 11 बजे मुठभेड़ शु़रू हुई जो 3 बजे तक चलती रही। इन पांच घंटो में कोई बैकअप फोर्स मौके पर नही आ पाई।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि दस दिनों के अंदर नक्सलियों ने दूसरी बार बड़ी घटना को अंजाम दे कर बता दिया कि  माओवादी कमजोर नही हुए वे अपनी पुरानी गोरिल्ला वार की रणनीति पर कायम है और एक ही तरीके से पहले झूठी सूचनाएं देकर जवानों को जंगल में बुलाते हैं और वापस लौटते समय ताबड़तोड़ हमला कर देते हैं। पिछले बीस साल में 12 हजार से अधिक निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं। कांग्रेस के नेता राजबब्बर ने राजीव गांधी भवन में 2018 मे कहा था कि नक्सली क्रांतिकारी हैं। यह माना जा रहा था पूर्ववर्ती राज्य की बीजेपी सरकार के पट्टी नक्सली ज्यादा आक्रामक है और कांग्रेस से उनको कोई परेशानी नहीं है लेकिन यह धारणा भी फिजूल साबित हुई है। एक मुखर जानकर की मानें तो नक्सलियों ने यह साबित कर दिया है कि वह किसी के सगे नहीं है और जंगल में वह सिर्फ अपनी मनमानी ही चाहते हैं फिर सरकार चाहे किसी भी पार्टी की क्यों ना हो।

नक्सलियों ने 17 मार्च 2021 को शांति वार्ता का प्रस्ताव सरकार के सामने रखा था। नक्सलियों ने विज्ञप्ति जारी कर कहा था कि, वे जनता की भलाई के लिए छत्तीसगढ़ सरकार से बातचीत के लिए तैयार हैं। उन्होंने बातचीत के लिए तीन शर्तें भी रखी थीं। इनमें सशस्त्र बलों को हटाने, माओवादी संगठनों पर लगे प्रतिबंध हटाने और जेल में बंद उनके नेताओं की बिना शर्त रिहाई शामिल थीं। मगर कोई बातचीत परवान नहीं चढ़ सकी। दरअसल कश्मीर में आतंकवाद के सफाई की तुलना अगर बस्तर में की जाए तो सरकार को जानकारों की राय में सबसे पहले यह करना होगा की जंगल के भीतर तक पक्की पहुंच बनानी पड़ेगी। बीजापुर मे तर्रेम क्षेत्र जहाँं सड़के नहीं है, सिर्फ पगडंडी है। यहां फोर्स का मोमेंट कैसे हो सकता है नक्सलियों की यह खास रणनीति है कि वह पक्की सड़क बनने ही नहीं देते। जानकारों की राय में सरकार को पक्की सड़कों का इंतजाम किए बगैर जंगल में पैदल सेना के भरोसे इस लड़ाई को जीतने में बहुत मुश्किलें आएंगी। इस इलाके की कमांड हिड़मा और सुजाता जैसी नक्सली लीडर के हाथ में है। जो घर में पैदा हुए जंगल में पैदा हुए और 24 घंटे वहीं गुजारते हैं। नक्सलियो को यह मालूम है की फरवरी, मार्च , अप्रैल के महीने में इलाके में अपनी पकड़ बनाने के लिए इस तरह की बड़ी वारदातों को अंजाम देना होगा और वह हमेशा से यही करते आए हैं जितनी भी बड़ी घटनाएं हुए हैं वह मार्च और अप्रैल के महीने में ही हुई है। महीनों में नक्सली जंगल में ट्रेनिंग कैंपों का संचालन करते हैं। पर चलकर मुठभेड़ों के शिवाय फिलहाल कुछ हासिल होने वाला नहीं है। फोर्स जंगल के बाहर तो पूरी मुस्तैदी से काम करती है लेकिन जंगल के भीतर की ट्रेनिंग अभी पक्की नहीं है और जिस तरह से नक्सलियों का बिल भी पसीजा है तो अब एक ही सूरते हाल है कि सरकार को किसी तरीके से माओवादियों को बातचीत की टेबल पर लाना चाहिए और यह वक्त की मांग है कि सरकार  आदिवासियों को विश्वास में लेकर नक्सली लीडरों से बात करने की पहल करे। 

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